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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः। आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । मा॒ । पा॒प्म॒न् । सृ॒ज॒ । व॒शी । सन् । मृ॒ड॒या॒सि॒ । न॒: । आ । मा॒ । भ॒द्रस्य॑ । लो॒के । पा॒प्म॒न् । धे॒हि॒ । अवि॑ऽह्रुतम् ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव मा पाप्मन्त्सृज वशी सन्मृडयासि नः। आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन्धेह्यविह्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । मा । पाप्मन् । सृज । वशी । सन् । मृडयासि । न: । आ । मा । भद्रस्य । लोके । पाप्मन् । धेहि । अविऽह्रुतम् ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
Bhajan -
आज का वैदिक भजन 🙏 1089
ओ३म् अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः।
आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
अथर्ववेद 6/26/1
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
प्रभु के नियम से कर्मों के,
तद्रूप फल पाए,
तद्रूप फल पाए,
दु:ख में तो ईश्वर भक्त को,
सही राह दिखाए,
सही राह दिखाए,
प्रभु प्रेरणायें भक्त को,
निष्पाप बनाए,
निष्पाप बनाए,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप! तेरे सङ्ग में,
ना इतना भटकता,
ना इतना भटकता,
फिर क्या भला है,
क्या बुरा है ,
कैसे समझता,
कैसे समझता,
प्रतिपक्ष के इन भावों से,
अब पुण्य ही भाये,
अब पुण्य ही भाये,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
जितना गिराया गर्त में,
उतना ही उठा दे,
उतना ही उठा दे,
प्रभु प्रेरणायें भर भर के,
तू मुझको जगा दे,
तू मुझको जगा दे,
स्थिर कर दे पुण्य-लोक में,
कल्याण हो जाए,
कल्याण हो जाए,
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
ऐ पाप ! मुझको छोड़ दे
तो चैन आ जाए,
चैन आ जाए
जब तक मैं तेरे वश में था
दु:ख दर्द ही पाए
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- 3.11.2002 1.55 pm
राग :- पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- पाप को वश में करने से सुख प्राप्ति 665वां भजन
तर्ज :- तदबीर से बिगड़ी हुई, तकदीर बना ले
705-0106
तद्रूप = समान रूप से
प्रतिपक्ष का भाव = उल्टा भाव (जैसे यदि पाप से पलट कर पुण्य करने का ही भाव आ जाए और फिर पुनः पाप की ओर लौटने का मन ना बने) उसे प्रतिपक्ष का भाव कहते हैं
गर्त = खड्डा
Vyakhya -
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
पाप को वश में करने से सुख प्राप्ति
ऐ पाप ! तू अब मुझे छोड़ दे तूने मुझे बहुत देर अपने वश में रखा, अब तो मेरा तुझे वश में करने का समय आ गया है। तेरे वशीभूत होकर मैंने बहुत दु:ख पाए अब तो मेरे सुख पाने का समय आ गया है। ऐ पाप ! तुझसे पाये दु:ख ही अब मेरे सुख के कारण हो जाएं। यह तो ईश्वरीय नियम है कि दु:ख के बाद सुख आते हैं और पाप की प्रतिक्रिया में पुण्य का प्रादुर्भाव होता है। अब तो उस प्रतिक्रिया का समय आ गया है। तुझसे दु:ख पा पाकर आज मैं सीधा हो गया हूं, अकुटिल हो गया हूं।
मेरी कुटिलता, टेढ़ापन झूठ,पाखंड ये सब मुझे तुझ पाप की ओर ले जाने वाले थे, पर आज अकुटिल, सरल, सीधा, सच्चा होकर मैं तो अब भद्र के लोक की ओर चल पड़ा हूं।
ऐ पाप ! यदि मैं तुझमें ग्रस्त होकर इतना ना भटकता, इतना दु:ख ना पाता तो मैं कभी भी कुटिलता की, असत्य जीवन की बुराई को अनुभव ना कर पाता और कभी पुण्य का सच्चा पुजारी ना बन सकता। इस तरह हे पाप ! तू ही आज मुझे भद्र के लोक में स्थापित कर रहा है। ऐ पाप ! तू अब अकुटिल हुए मुझे कल्याण के लोक में पहुंचा दे।
मैं जितना पक्का बेशर्म-पापी था उतना ही कट्टर, दृढ़, सच्चा, पुण्यात्मा मुझे बना दे। जितना ही गहरा में पाप के गर्त में गया हुआ था उतना ही ऊंचा तू मुझे पुण्य के लोक में स्थिर कर दे।
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