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अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
सूक्त - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - पुरउष्णिक्
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
मधु॑ जनिषीय॒ मधु॑ वंशिषीय। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑ । ज॒नि॒षी॒य॒ । मधु॑ । वं॒शि॒षी॒य॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥१.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
मधु जनिषीय मधु वंशिषीय। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठमधु । जनिषीय । मधु । वंशिषीय । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥१.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
मधु जनीषीय मधु वंशिषीय। पयस्वानग्न आ गमं तं मा संसृज वर्चसा।। अथर्व ॰९.१.१४
वैदिक भजन
राग पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल अद्धा
है अन्धेरी कटुता-रात, मधु का होगा कब प्रकाश ?
स्वर्णिम उषा आएगी कब? फैले विश्व का प्रताप
कटुता बढ़ती जा रही है गिर रहा है आज समाज
विश्व कैसे बन सकेगा ईश्वरीय सम्राट ।।
प्रकृति में जहां देखो मधु बरसा जा रहा है
थिरकती है प्राची उषा जग ज्योति को पा रहा है
झांकता है सूर्य हरसू मधु बरसाता रहा है
मुस्कुराता चॉंद देता शीतल किरणों का देता प्रसाद ।।
तारिकांए नभ में चमके- मधुरस को बहाती है
फूल फल से लदी वाटिका मधुरस को फैलाती है
चाहता हूं मधुरस को मैं बिखरने ना ही दूंगा
अपने हृदय की प्याली में इसे संचित कर लूं आज ।।
उत्कट मेरी अभिलाषा जानती है मधु की भाषा
यदि मधुव्रत कर लूं धारण संकल्प होगा राता
उत्पन्न कर लूंगा मधु को मधु रंग रहूं बरसाता
अन्यों से भी करूं आशा कर लें मधु का वो आयास।।
आज से प्रण ले रहा हूं करूंगा क्षरित मधु को
सबको देता हूं निमन्त्रण क्षरित मधु एवमतवस्तु हो
वाणी मन और कर्म साधूं दूर कटुता से मैं भागूं
एक दिन विश्व- समाज लायेगा वो नवप्रभात ।।
हे तेजोमय परमात्मन् ! मधु से मैं हुआ मैं युक्त
कर दो वर्चस्व से संयुक्त और कटुता से वियुक्त
मेघ विद्युत चमके मधु अंतर वाणी हरखे
तुम्हरे आनन्द मधु का तेज लाये अंग -अंग में प्रकाश
तुमसे मधुकशा हो प्रदान गंगा जमुना के समान
अंत:करण हो पवित्र मधु वर्चस् हो प्रमाण
और समष्टि रूप विश्व होता जाए पवमान
अग्नि देव परमात्मन् पूर्ण मधु का हो विकास
कटुता........
९.८.२०२३
९.४० रात्रि
कटुता= कड़वाहट
संचित= इकट्ठा करना, जमा करना
उत्कट=अत्यन्त तीव्र
राता=रंगा हुआ
आयास= प्रयत्न, श्रम
क्षरित=टपका हुआ
एवमस्तु =ऐसा ही हो
संयुक्त=मिला हुआ, जुड़ा हुआ
वियुक्त=अलग हुआ हुआ
हरखना= प्रसन्न होना
मधुकशा=मिठास की तीव्र प्रेरणा
वर्चस= तेज, कान्ति, दीप्ति
समष्टि=सामूहिक
पवमान= अत्यन्त पवित्र
🕉🧘♂️द्वितीय श्रंखला का , 127वां वैदिक भजन और अब तक का 1134 वां वैदिक भजन 🙏🎧🌹
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🌹 🙏
Vyakhya -
मधु जनू ,मधु मांगूं
आज विश्व में कटुता बढ़ती जा रही है, माधुर्य समाप्त होता जा रहा है। पर यदि हम विश्व को ईश्वरीय साम्राज्य बनाना चाहते हैं, तो इसे हमें मधुमेह बनाना होगा।
प्रकृति में सर्वत्र मधु बरस रहा है, क्या वहां से हम मधु संचित नहीं कर सकते? प्राची में थिरकती प्रकाशवती ऊषाएं मधु वर्षा रही है।क्षितिज से झांकता हुआ सूर्य मधु बरसा रहा है। शान्त चन्द्रिका के साथ गगन में मुस्कुराता हुआ चांद मधु बरसा रहा है। रात्रि में आकाश में छिड़कती हुई तारिकाएं मधु बरसा रही हैं। हरित पत्रावली का शाल ओढ़े फूलों- फलों से लदी वनस्पतियां मधु बरसा रही हैं। हिमालय के हम धवल शिखर मधु बरसा रहे हैं। झर- झर बहती हुई निर्झरिणियां और पवन- स्पर्श से तरंगित होती हुई सरिताएं मधु बरसा रही हैं । अन्तरिक्षस्थ मेघ से रिमझिम बरसती वर्षाएं मधु बरसा रही हैं।
भूमि पर व्याप्त मनमोहक हरियाली मधु बरसा रही है।
मैं चाहता हूं कि यह मधु बिखरने ना पाए, यत्न से इसे अपने हृदय की प्याली में संचित कर लूं।
मेरी उत्कट अभिलाषा है कि मैं स्वयं मधु जनूं तथा अन्य से भी मधु की ही याचना करूं। एकतरफा प्रयास से जगत् में मधु का प्रवाह नहीं बह सकता। यदि मैं यह व्रत धारण कर लूं, दृढ़ संकल्प कर लूं की आज से मधु ही उत्पन्न करूंगा,अन्यों के प्रति मधु बरसाऊंगा,तभी मैं अन्य से भी आशा कर सकता हूं कि वह भी मेरे प्रति मधु का स्रोत बहाएंगे। अतः मैं आज से यह प्रण लेता हूं कि मैं अपने मन, वाणी और कर्म से मधु को ही क्षरित करूंगा। भाइयों ! इस मधु क्षरण में मैं तुम्हें भी निमन्त्रित करता हूं। हम -तुम मिलकर यदि मधु क्षरण करें और मध्य में आने वाली कटुता को दूर हटाते चलें तो एक दिन यह विश्व मधु से पूर्णतया भर जाएगा।
हे अग्नि देव ! हे तेजोमय परमात्मन् ! मैं मधुमय होकर तुम्हारे समीप आया हूं। तुम मुझे वर्चस्व से संयुक्त कर दो, क्योंकि वर्चस्विता- विहीन मधु, सच्चा मधु नहीं है । बादल के मधुमय विद्युत रूप मधुकशा चमकती है, मन के मधु में आंतरिक वाणी रूप मधुकशा स्फुरित होती है। हे भगवन् ! तुम्हारे आनन्द मधु में भी तेजस्विता रूप
मधुकशा प्रज्वलित हो रही है । वह तेजस्विता की मधुकशा तुम मुझे भी प्रदान करो । मधु और वर्चस्व दोनों की गंगा जमुनी धारा मेरे अंतः करण को पवित्र करे ,विश्व के समष्टि- रूप अन्त:करण को भी पवित्र करे। हे देव ! मेरी इस कामना को पूर्ण करो।