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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 145/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इन्द्राणी देवता - उपनिषत्सपत्नीबाधनम् छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उत्ता॑नपर्णे॒ सुभ॑गे॒ देव॑जूते॒ सह॑स्वति । स॒पत्नीं॑ मे॒ परा॑ धम॒ पतिं॑ मे॒ केव॑लं कुरु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ता॑नऽपर्णे । सुऽभ॑गे । देव॑ऽजूते । सह॑स्वति । स॒ऽपत्नी॑म् । मे॒ । परा॑ । ध॒म॒ । पति॑म् । मे॒ । केव॑लम् । कु॒रु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तानपर्णे सुभगे देवजूते सहस्वति । सपत्नीं मे परा धम पतिं मे केवलं कुरु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तानऽपर्णे । सुऽभगे । देवऽजूते । सहस्वति । सऽपत्नीम् । मे । परा । धम । पतिम् । मे । केवलम् । कुरु ॥ १०.१४५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 145; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2

    Meaning -
    O soma plant growing up with luxuriant leaves and branches, nobly effective, divinely energised, giver of peace, patience and courageous vitality, transform me to concentrate on my one and only love. Throw off my evil fascination. Let me be with my master spirit of life.

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