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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि तष्टे॑व दीधया मनी॒षामत्यो॒ न वा॒जी सु॒धुरो॒ जिहा॑नः। अ॒भि प्रि॒याणि॒ मर्मृ॑श॒त्परा॑णि क॒वीँरि॑च्छामि सं॒दृशे॑ सुमे॒धाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । तष्टा॑ऽइव । दी॒ध॒य॒ । म॒नी॒षाम् । अत्यः॑ । न । वा॒जी । सु॒ऽधुरः॑ । जिहा॑नः । अ॒भि । प्रि॒याणि॑ । मर्मृ॑शत् । परा॑णि । क॒वीन् । इ॒च्छा॒मि॒ । स॒म्ऽदृशे॑ । सु॒ऽमे॒धाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि तष्टेव दीधया मनीषामत्यो न वाजी सुधुरो जिहानः। अभि प्रियाणि मर्मृशत्पराणि कवीँरिच्छामि संदृशे सुमेधाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। तष्टाऽइव। दीधय। मनीषाम्। अत्यः। न। वाजी। सुऽधुरः। जिहानः। अभि। प्रियाणि। मर्मृशत्। पराणि। कवीन्। इच्छामि। सम्ऽदृशे। सुऽमेधाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1

    Meaning -
    Just as a wood carver sculpts out a beautiful form of art from a piece of wood, so you shine and sharpen your intelligence, and, thinking and contemplating the farthest favourite places of space, reach there like a ray of light well joined to the sun’s chariot. Such men of intelligence and poets of wisdom I wish to see, intelligent as I am by the grace of Indra.

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