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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ सु॑ष्टु॒ती नम॑सा वर्त॒यध्यै॒ द्यावा॒ वाजा॑य पृथि॒वी अमृ॑ध्रे। पि॒ता मा॒ता मधु॑वचाः सु॒हस्ता॒ भरे॑भरे नो य॒शसा॑वविष्टाम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सु॒ऽस्तु॒ती । नम॑सा । व॒र्त॒यध्यै॑ । द्यावा॑ । वाजा॑य । पृ॒थि॒वी इति॑ । अमृ॑ध्रे॒ इति॑ । पि॒ता । मा॒ता । मधु॑ऽवचाः । सु॒ऽहस्ता॑ । भरे॑ऽभरे । नः॒ । य॒शसौ॑ । अ॒वि॒ष्टा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सुष्टुती नमसा वर्तयध्यै द्यावा वाजाय पृथिवी अमृध्रे। पिता माता मधुवचाः सुहस्ता भरेभरे नो यशसावविष्टाम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। सुऽस्तुती। नमसा। वर्तयध्यै। द्यावा। वाजाय। पृथिवी इति। अमृध्रे इति। पिता। माता। मधुऽवचाः। सुऽहस्ता। भरेऽभरे। नः। यशसौ। अविष्टाम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2

    Meaning -
    We offer songs of adoration with homage and offers of yajnic food and fragrance to win incessant blessings of loving and non-violent heaven and earth for the sake of food and sustenance, knowledge and progressive advancement in life. May the father, mother, heaven and earth, sweet and loving of voice and word, liberal and unstinted of hand, bless us with honour and excellence at every stage of our battle business of life.

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