यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 16
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्।यु॒यो॒ध्यस्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। नय॑। सु॒पथेति॑ सु॒ऽपथा॑। रा॒ये। अ॒स्मान्। विश्वा॑नि। दे॒व॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान् ॥ यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। जु॒हु॒रा॒णम्। एनः॑। भूयि॑ष्ठाम्। ते॒। नम॑ऽउक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। वि॒धे॒म॒ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठान्ते नमउक्तिँविधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। नय। सुपथेति सुऽपथा। राये। अस्मान्। विश्वानि। देव। वयुनानि। विद्वान्॥ युयोधि। अस्मत्। जुहुराणम्। एनः। भूयिष्ठाम्। ते। नमऽउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। विधेम॥१६॥
मन्त्रार्थ -
(अग्ने देव) हे अणायक ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (विश्वानि वयुनानि विद्वान्) समस्त प्रज्ञानों- चलने के उपायो मार्गदिशाओं को जानने वाला है। अतः (अस्मान्) हमें (ये) जीवनैश्वर्य एवं मोक्ष-सम्पत्ति के लिए (सुपथा) सुमार्ग से (नय) ले चल, तथा (अस्मत्) हमारे से (जुहुराणम्-एनः) कुटिल या अनुचित पाप एवं त्रुटि को कर्मनाम" (निघं० २११) "क्रतुः प्रज्ञाननाम" (निघ० ३९) (युयोधि) अलग कर दे (ते) तेरे लिए (भूयिष्ठां नमः-उक्ति विधेम) बहुत बहुत नमन उक्ति नम्र स्तुति समर्पित करते हैं ॥१६॥
टिप्पणी -
"क्रतुः छान्दसो मतुब्लोपः । इसका विशेष अर्थ और विवरण देखो हमारी “उपनिषद् सुधासार" पुस्तक के अन्तर्गत कठोपनिषद् की भूमिका में, यह मन्त्र कठोपनिषद् का मूल है अतः एव विस्तृत अर्थ वहां किया है ।
विशेष - "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
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