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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 115
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    आ ते॑ व॒त्सो मनो॑ यमत् पर॒माच्चि॑त् स॒धस्था॑त्। अग्ने॒ त्वाङ्का॑मया गि॒रा॥११५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। ते॒। व॒त्सः। मनः॑। य॒म॒त्। प॒र॒मात्। चि॒त्। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अग्ने॑। त्वाङ्का॑म॒येति॒ त्वाम्ऽका॑मया। गि॒रा ॥११५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते वत्सो मनो यमत्परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वाङ्कामया गिरा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। वत्सः। मनः। यमत्। परमात्। चित्। सधस्थादिति सधऽस्थात्। अग्ने। त्वाङ्कामयेति त्वाम्ऽकामया। गिरा॥११५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 115
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष! (त्वाङ्कामया) तुझको कामना करने के हेतु (गिरा) वाणी से जिस (ते) तेरा (मनः) चित्त जैसे (परमात्) अच्छे (सधस्थात्) एक से स्थान से (चित्) भी (वत्सः) बछड़ा गौ को प्राप्त होवे, वैसे (आ, यमत्) स्थिर होता है, सो तू मुक्ति को क्यों न प्राप्त होवे॥११५॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि मन और वाणी को सदैव अपने वश में रक्खें॥११५॥

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