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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 41
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इन्द्र॑स्य॒ वृष्णो॒ व॑रुणस्य॒ राज्ञ॑ऽआदि॒त्यानां॑ म॒रुता॒ शर्द्ध॑ऽउ॒ग्रम्। म॒हाम॑नसां भुवनच्य॒वानां॒ घोषो॑ दे॒वानां॒ जय॑ता॒मुद॑स्थात्॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। वृष्णः॑। वरु॑णस्य। राज्ञः॑। आ॒दि॒त्याना॑म्। म॒रुता॑म्। शर्द्धः॑। उ॒ग्रम्। म॒हाम॑नसा॒मिति॑ म॒हाऽम॑नसाम्। भु॒व॒न॒च्य॒वाना॒मिति॑ भुवनऽच्य॒वाना॑म्। घोषः॑। दे॒वाना॑म्। जय॑ताम्। उत्। अ॒स्था॒त् ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानाम्मरुताँ शर्धऽउग्रम् । महामनसाम्भुवनच्यवानाङ्घोषो देवानाञ्जयतामुदस्थात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। वृष्णः। वरुणस्य। राज्ञः। आदित्यानाम्। मरुताम्। शर्द्धः। उग्रम्। महामनसामिति महाऽमनसाम्। भुवनच्यवानामिति भुवनऽच्यवानाम्। घोषः। देवानाम्। जयताम्। उत्। अस्थात्॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 41
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    पदार्थ -
    (वृष्णः) वीर्य्यवान् (इन्द्रस्य) सेनापति (वरुणस्य) सब से उत्तम (राज्ञः) न्याय और विनय आदि गुणों से प्रकाशमान सब के अधिपति राजा के (भुवनच्यवानाम्) जो उत्तम घरों को प्राप्त होते (महामनसाम्) बड़े-बड़े विचार वाले वा (जयताम्) शत्रुओं के जीतने को समर्थ (आदित्यानाम्) जिन्होंने ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य किया हो, (मरुताम्) और जो पूर्ण विद्या बल युक्त हैं, उन (देवानाम्) विद्वान् पुरुषों का (उग्रम्) जो शत्रुओं को असह्य (शर्द्धः) बल (घोषः) शूरता और उत्साह उत्पन्न करने वाला विचित्र बाजों का स्वरालाप शब्द है, वह युद्ध के आरम्भ से पहिले (उदस्थात्) उठे॥४१॥

    भावार्थ - सेनाध्यक्षों को चाहिये कि शिक्षा और युद्ध के समय मनोहर वीरभाव को उत्पन्न करने वाले अच्छे बाजों के बजाए हुए शब्दों से वीरों को हर्षित करावें तथा जो बहुत काल पर्यन्त ब्रह्मचर्य और अधिक विद्या से शरीर और आत्मबलयुक्त हैं, वे ही योद्धाओं की सेनाओं के अधिकारी करने योग्य है॥४१॥

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