यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 43
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
4
अ॒स्माक॒मिन्द्रः॒ समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ याऽइष॑व॒स्ता ज॑यन्तु। अ॒स्माकं॑ वी॒राऽउत्त॑रे भवन्त्व॒स्माँ२ऽउ॑ देवाऽअवता॒ हवे॑षु॥४३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म्। इन्द्रः॑। समृ॑ते॒ष्विति॒ सम्ऽऋ॑तेषु। ध्व॒जेषु॑। अ॒स्माक॑म्। याः। इष॑वः। ताः। ज॒य॒न्तु॒। अ॒स्माक॑म्। वी॒राः। उत्त॑र॒ इत्युत्ऽत॑रे। भ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। दे॒वाः॒। अ॒व॒त॒। हवे॑षु ॥४३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकँयाऽइषवस्ता जयन्तु । अस्माकँवीराऽउत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवाऽअवता हवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्माकम्। इन्द्रः। समृतेष्विति सम्ऽऋतेषु। ध्वजेषु। अस्माकम्। याः। इषवः। ताः। जयन्तु। अस्माकम्। वीराः। उत्तर इत्युत्ऽतरे। भवन्तु। अस्मान्। ऊँऽइत्यूँ। देवाः। अवत। हवेषु॥४३॥
विषय - फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (देवाः) विजय चाहने वाले विद्वानो! तुम (अस्माकम्) हम लोगों के (समृतेषु) अच्छे प्रकार सत्य-न्याय प्रकाश करानेहारे चिह्न जिनमें हों, उन (ध्वजेषु) अपने वीर जनों के निश्चय के लिये रथ आदि यानों के ऊपर एक-दूसरे से भिन्न स्थापित किये हुए ध्वजा आदि चिह्नों में नीचे अर्थात् उनकी छाया में वर्त्तमान जो (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य करने वाला सेना का ईश और (अस्माकम्) हम लोगों की (याः) जो (इषवः) प्राप्त सेना हैं, वह इन्द्र और (ताः) वे सेना (हवेषु) जिनमें ईर्ष्या से शत्रुओं को बुलावें, उन संग्रामों में (जयन्तु) जीतें (अस्माकम्) हमारे (वीराः) वीर जन (उत्तरे) विजय के पीछे जीवनयुक्त (भवन्तु) हों (अस्मान्) हम लोगों की (उ) सब जगह युद्धसमय में (अवत) रक्षा करो॥४३॥
भावार्थ - सेनाजन और सेनापति आदि को चाहिये कि अपने अपने रथ आदि में भिन्न-भिन्न चिह्न को स्थापन करें, जिससे यह इसका रथ आदि है, ऐसा सब जानें और जैसे अश्व तथा वीरों का अधिक विनाश न हो, वैसा ढंग करें, क्योंकि परस्पर के पराक्रम के क्षय होने से निश्चल विजय नहीं होता, यह जानें॥४३॥
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