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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 48
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ न॒ऽइन्द्रो॑ दू॒रादा न॑ऽआ॒साद॑भिष्टि॒कृदव॑से यासदु॒ग्रः। ओजि॑ष्ठेभिर्नृ॒पति॒र्वज्र॑बाहुः स॒ङ्गे स॒मत्सु॑ तु॒र्वणिः॑ पृत॒न्यून्॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। इन्द्रः॑। दू॒रात्। आ। नः॒। आ॒सात्। अ॒भि॒ष्टि॒कृदित्य॑भिष्टि॒ऽकृत्। अव॑से। या॒स॒त्। उ॒ग्रः। ओजि॑ष्ठेभिः। नृ॒पति॒रिति॑ नृ॒ऽपतिः॑। वज्र॑बाहु॒रिति॒ वज्र॑ऽबाहुः। स॒ङ्ग इति॑ स॒म्ऽगे। स॒मत्स्विति॑ स॒मत्ऽसु॑। तु॒र्वणिः॑। पृ॒त॒न्यून् ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नऽइन्द्रो दूरादा न आसादभिष्टिकृदवसे यासदुग्रः । ओजिष्ठेभिर्नृपतिर्वज्रबाहुः सङ्गे समत्सु तुर्वणिः पृतन्यून् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। इन्द्रः। दूरात्। आ। नः। आसात्। अभिष्टिकृदित्यभिष्टिऽकृत्। अवसे। यासत्। उग्रः। ओजिष्ठेभिः। नृपतिरिति नृऽपतिः। वज्रबाहुरिति वज्रऽबाहुः। सङ्ग इति सम्ऽगे। समत्स्विति समत्ऽसु। तुर्वणिः। पृतन्यून्॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -
    जो (अभिष्टिकृत्) सब ओर से इष्ट सुख करे (वज्रबाहुः) जिसकी वज्र के समान दृढ़ भुजा (नृपतिः) नरों का पालन करनेहारा (ओजिष्ठेभिः) अति बल वाले योद्धाओं से (उग्रः) दुष्टों पर क्रोध करने और (तुर्वणिः) शीघ्र शत्रुओं का मारनेहारा (इन्द्रः) शत्रुविदारक सेनापति (नः) हमारी (अवसे) रक्षादि के लिये (समत्सु) बहुत संग्रामों में (सङ्गे) प्रसंग में (दूरात्) दूर से और (आसात्) समीप से (आ, यासत्) आवे और (नः) हमारे (पृतन्यून्) सेना और संग्राम की इच्छा करनेहारों की (आ) सदा रक्षा और मान्य करे, वह हम लोगों का भी सदा माननीय होवे॥४८॥

    भावार्थ - वे ही पुरुष राज्य करने को योग्य होते हैं जो दूरस्थ और समीपस्थ सब मनुष्यादि प्रजाओं की यथावत् समीक्षण और दूत भेजने से रक्षा करते और शूरवीर का सत्कार भी निरन्तर करते हैं॥४८॥

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