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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 61
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    उ॒षासा॒नक्त॑मश्विना॒ दिवेन्द्र॑ꣳ सा॒यमि॑न्द्रि॒यैः।सं॒जा॒ना॒ने सु॒पेश॑सा॒ सम॑ञ्जाते॒ सर॑स्वत्या॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षासा॑। उ॒षसेत्यु॒षसा॑। नक्त॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। दिवा॑। इन्द्र॑म्। सा॒यम्। इ॒न्द्रि॒यैः। स॒ञ्जा॒ना॒ने इति॑ सम्ऽजाना॒ने। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। सम्। अ॒ञ्जा॒ते॒ऽइत्य॑ञ्जाते। सर॑स्वत्या ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषासानक्ताश्विना दिवेन्द्रँ सायमिन्द्रियैः । सञ्जानाने सुपेशसा समञ्जाते सरस्वत्या ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उषासा। उषसेत्युषसा। नक्तम्। अश्विना। दिवा। इन्द्रम्। सायम्। इन्द्रियैः। सञ्जानाने इति सम्ऽजानाने। सुपेशसेति सुऽपेशसा। सम्। अञ्जातेऽइत्यञ्जाते। सरस्वत्या॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 61
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् लोगो! जैसे (सुपेशसा) अच्छे रूप वाले (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (सरस्वत्या) अच्छी उत्तम शिक्षा पाई हुई वाणी से (उषासा) प्रभात (नक्तम्) रात्रि (सायम्) संध्याकाल और (दिवा) दिन में (इन्द्रियैः) जीव के लक्षणों से (इन्द्रम्) बिजुली को (संजानाने) अच्छे प्रकार प्रकट करते हुए (समञ्जाते) प्रसिद्ध हैं, वैसे तुम भी प्रसिद्ध होओ॥६१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय रात्रि को और संध्याकाल दिन को निवृत्त करता है, वैसे विद्वानों को चाहिये कि अविद्या और दुष्ट शिक्षा का निवारण करके सब लोगों को सब विद्याओं की शिक्षा में नियुक्त करें॥६१॥

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