यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 28
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - नक्षत्रादयो देवताः
छन्दः - भुरिगष्टिः
स्वरः - मध्यमः
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नक्ष॑त्रेभ्यः॒ स्वाहा॑ नक्ष॒त्रिये॑भ्यः॒ स्वाहा॑होरा॒त्रेभ्यः॒ स्वाहा॑र्द्धमा॒सेभ्यः॒ स्वाहा॒ मासे॑भ्यः॒ स्वाह॑ऽऋ॒तुभ्यः॒ स्वाहा॑र्त्त॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑ संवत्स॒राय॒ स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॑ च॒न्द्राय॒ स्वाहा॒ सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ र॒श्मिभ्यः॒ स्वाहा॒ वसु॑भ्यः॒ स्वाहा॑ रु॒द्रेभ्यः॒ स्वाहा॑दि॒त्येभ्यः॒ स्वाहा॑ म॒रुद्भ्यः॒ स्वाहा॒ विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॒ मूले॑भ्यः॒ स्वाहा॒ शाखा॑भ्यः॒ स्वाहा॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ स्वाहा॒ पुष्पे॑भ्यः॒ स्वाहा॒ फले॑भ्यः॒ स्वाहौष॑धीभ्यः॒ स्वाहा॑॥२८॥
स्वर सहित पद पाठनक्ष॑त्रेभ्यः। स्वाहा॑। न॒क्ष॒त्रिये॑भ्यः। स्वाहा॑। अ॒हो॒रा॒त्रेभ्यः॑। स्वाहा॑। अ॒र्द्ध॒मा॒सेभ्य॒ इत्य॑र्द्ध॒ऽमा॒सेभ्यः॑। स्वाहा॑। मासे॑भ्यः। स्वाहा॑। ऋ॒तुभ्य॒ इत्यृ॒तुऽभ्यः॑। स्वाहा॑। आ॒र्त्त॒वेऽभ्यः॑। स्वाहा॑। सं॒व॒त्स॒राय॑। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑। सूर्या॑य। स्वाहा॑। र॒श्मिभ्य॒ इति॑ र॒श्मिऽभ्यः॑। स्वाहा॑। वसु॑भ्य॒ इति॒ वसु॑ऽभ्यः। स्वाहा॑। रु॒द्रेभ्यः॑। स्वाहा॑। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। स्वाहा॑। म॒रुद्भ्य॒ इति॑ म॒रुत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। विश्वे॑भ्यः। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑। मूले॑भ्यः। स्वाहा॑। शाखा॑भ्यः। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑भ्य॒ इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः। स्वाहा॑। पुष्पे॑भ्यः। स्वाहा॑। फले॑भ्यः। स्वाहा॑। ओष॑धीभ्यः स्वाहा॑ ॥२८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नक्षत्रेभ्यः स्वाहा नक्षत्रियेभ्यः स्वाहाहोरात्रेभ्यः स्वाहार्धमासेभ्यः स्वाहा मासेभ्यः स्वाहाऽऋतुभ्यः स्वाहार्तवेभ्यः स्वाहा सँवत्सराय स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याँ स्वाहा चन्द्राय स्वाहा सूर्याय स्वाहा रश्मिभ्यः स्वाहा वसुभ्यः स्वाहा रुद्रेभ्यः स्वाहादित्येभ्यः स्वाहा मरुद्भ्यः स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा मूलेभ्यः स्वाहा शाखाभ्यः स्वाहा वनस्पतिभ्यः स्वाहा पुष्पेभ्यः स्वाहा फलेभ्यः स्वाहौषधीभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
नक्षत्रेभ्यः। स्वाहा। नक्षत्रियेभ्यः। स्वाहा। अहोरात्रेभ्यः। स्वाहा। अर्द्धमासेभ्य इत्यर्द्धऽमासेभ्यः। स्वाहा। मासेभ्यः। स्वाहा। ऋतुभ्य इन्यृतुऽभ्यः। स्वाहा। आर्त्तवेऽभ्यः। स्वाहा। संवत्सराय। स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्याम्। स्वाहा। चन्द्राय। स्वाहा। सूर्याय। स्वाहा। रश्मिभ्य इति रश्मिऽभ्यः। स्वाहा। वसुभ्य इति वसुऽभ्यः। स्वाहा। रुद्रेभ्यः। स्वाहा। आदित्येभ्यः। स्वाहा। मरुद्भ्य इति मरुत्ऽभ्यः। स्वाहा। विश्वेभ्यः। देवेभ्यः। स्वाहा। मूलेभ्यः। स्वाहा। शाखाभ्यः। स्वाहा। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः। स्वाहा। पुष्पेभ्यः। स्वाहा। फलेभ्यः। स्वाहा। ओषधीभ्यः स्वाहा॥२८॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
मनुष्यों को चाहिये कि (नक्षत्रेभ्यः) जो पदार्थ कभी नष्ट नहीं होते उनके लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (नक्षत्रियेभ्यः) उक्त पदार्थों के समूहों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अहोरात्रेभ्यः) दिन-रात्रि के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अर्द्धमासेभ्यः) शुक्ल-कृष्ण पक्ष अर्थात् पखवाड़ों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (मासेभ्यः) महीनों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (ऋतुभ्यः) वसन्त आदि छः ऋतुओं के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (आर्त्तवेभ्यः) ऋतुओं में उत्पन्न हुए ऋतु के पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (संवत्सराय) वर्षों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाश और भूमि के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (चन्द्राय) चन्द्रलोक के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (सूर्य्याय) सूर्य्यलोक के लिये (स्वाहा) यज्ञक्रिया (रश्मिभ्यः) सूर्य्य आदि की किरणों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (वसुभ्यः) पृथिवी आदि लोकों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (रुद्रेभ्यः) दश प्राणों के लिये (स्वाहा) यज्ञक्रिया (आदित्येभ्यः) काल के अवयव जो अविनाशी हैं, उनके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मरुद्भ्यः) पवनों के लिये (स्वाहा) उनके अनुकूल क्रिया (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के लिये (स्वाहा) सुन्दर क्रिया (मूलेभ्यः) सभों की जड़ों के लिये (स्वाहा) तदनुकूल क्रिया (शाखाभ्यः) शाखाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (पुष्पेभ्यः) फूलों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (फलेभ्यः) फलों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (ओषधीभ्यः) ओषधियों के लिये (स्वाहा) नित्य उत्तम क्रिया अवश्य करनी चाहिये॥२८॥
भावार्थ - मनुष्य नित्य सुगन्ध्यादि पदार्थों को अग्नि में छोड़ अर्थात् हवन कर पवन और सूर्य की किरणों द्वारा वनस्पति, ओषधि, मूल, शाखा, पुष्प और फलादिकों में प्रवेश करा के सब पदार्थों की शुद्धि कर आरोग्यता की सिद्धि करें॥२८॥
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