यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 40
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रजा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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ऋ॒तव॑स्तऽऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ विशा॑सतु।सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभिः॑ शम्यन्तु त्वा॥४०॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तवः॑। ते॒। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। पर्व॑। श॒मि॒तारः॑। वि। शा॒स॒तु॒। सं॒व॒त्स॒रस्य॑। तेज॑सा। श॒मीभिः॑। श॒म्य॒न्तु॒। त्वा॒ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतवस्त्वाऽऋतुथा पर्व शमितारो वि शासतु । सँवत्सरस्य तेजसा शमीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतवः। ते। ऋतुथेत्यृतुऽथा। पर्व। शमितारः। वि। शासतु। संवत्सरस्य। तेजसा। शमीभिः। शम्यन्तु। त्वा॥४०॥
विषय - फिर स्त्री-पुरुष कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्यार्थी जन! जैसे (ते) तेरे (ऋतवः) वसन्त आदि ऋतु (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु के गुणों से (पर्व) पालना कर (शमितारः) वैसे पढ़ाने रूप यज्ञ में शम, दम आदि गुणों की प्राप्ति करानेहारे अध्यापक पढ़ने वालों को (वि, शासतु) विशेषता से उपदेश करें (संवत्सरस्य) और संवत् के (तेजसा) जल (शमीभिः) और कर्मों से (त्वा) तुझे (शम्यन्तु) शान्ति दें, उनकी तू सदैव सेवा कर॥४०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋतु पारी से अपने-अपने चिह्नों को प्राप्त होते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष पारी से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ का धर्म, वानप्रस्थ वन में रहकर तप करना और संन्यास आश्रम को करके; ब्राह्मण और ब्राह्मणी पढ़ावें, क्षत्रिय और क्षत्रिया प्रजा की रक्षा करें, वैश्य और वैश्या खेती आदि की उन्नति करें और शूद्र-शूद्रा उक्त ब्राह्मण आदि की सेवा किया करें॥४०॥
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