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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 52
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - परमेश्वरो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प॒ञ्चस्व॒न्तः पुरु॑ष॒ऽआवि॑वेश॒ तान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ऽअर्पि॑तानि।ए॒तत्त्वात्र॑ प्रतिमन्वा॒नोऽअ॑स्मि॒ न मा॒यया॑ भव॒स्युत्त॑रो॒ मत्॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒ञ्चस्विति॑। प॒ञ्चऽसु॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। पुरु॑षः। आ। वि॒वे॒श॒। तानि॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। पुरु॑षे। अर्पि॑तानि। ए॒तत्। त्वा॒। अत्र॑। प्र॒ति॒म॒न्वा॒न इति॑ प्रतिऽमन्वा॒नः। अ॒स्मि॒। न। मा॒यया॑। भ॒व॒सि॒। उत्त॑र॒ इत्युत्ऽत॑रः। मत्॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्चस्वन्तः पुरुषऽआविवेश तान्यन्तः पुरुषेऽअर्पितानि । एतत्त्वात्र प्रतिमन्वानोऽअस्मि न मायया भवस्युत्तरो मत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्चस्विति। पञ्चऽसु। अन्तरित्यन्तः। पुरुषः। आ। विवेश। तानि। अन्तरित्यन्तः। पुरुषे। अर्पितानि। एतत्। त्वा। अत्र। प्रतिमन्वान इति प्रतिऽमन्वानः। अस्मि। न। मायया। भवसि। उत्तर इत्युत्ऽतरः। मत्॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 52
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    पदार्थ -
    हे जानने की इच्छा वाले पुरुष! (पञ्चसु) पांच भूतों वा उनकी सूक्ष्म मात्राओं में (अन्तः) भीतर (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा (आ, विवेश) अपनी व्याप्ति से अच्छे प्रकार व्याप्त हो रहा है, (तानि) वे पञ्चभूत वा तन्मात्रा (पुरुषे) पूर्ण परमात्मा पुरुष के (अन्तः) भीतर (अर्पितानि) स्थापित किये हैं, (एतत्) यह (अत्र) इस जगत् में (त्वा) आपको (प्रतिमन्वानः) प्रत्यक्ष जानता हुआ मैं समाधान-कर्त्ता (अस्मि) हूँ, जो (मायया) उत्तम बुद्धि से युक्त तू (भवसि) होता है तो (मत्) मुझ से (उत्तरः) उत्तम समाधान-कर्त्ता कोई भी (न) नहीं है, यह तू जान॥५२॥

    भावार्थ - परमेश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! मेरे ऊपर कोई भी नहीं है। मैं ही सब का आधार, सब में व्याप्त होके धारण करता हूँ। मेरे व्याप्त होने से सब पदार्थ अपने-अपने नियम में स्थित हैं। हे सब से उत्तम योगी विद्वान् लोगो! आप लोग इस मेरे विज्ञान को जनाओ॥५२॥

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