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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 22
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत।ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः। पि॒पी॒ष॒ति॒। जु॒होत॑। प्र। च॒। ति॒ष्ठ॒त॒। ने॒ष्ट्रात्। ऋ॒तुभि॒रित्यृ॒तुऽभिः॑। इ॒ष्य॒त॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्रविणोदा इति द्रविणःऽदाः। पिपीषति। जुहोत। प्र। च। तिष्ठत। नेष्ट्रात्। ऋतुभिरित्यृतुऽभिः। इष्यत॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे (द्रविणोदाः) धन वा यश का देने वाला जन (ऋतुभिः) वसन्तादि ऋतुओं के साथ (नेष्ट्रात्) विनय से रस को (पिपीषति) पिया चाहता है, वैसे तुम लोग रस को (इष्यत) प्राप्त होओ (जुहोत) ग्रहण वा हवन करो (च) और (प्र, तिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त होओ॥२२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान्! जैसे उत्तम वैद्य सुन्दर पथ्य भोजन और उत्तम विद्या से आप रोगरहित हुए दूसरों को रोगों से पृथक् करके प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, वैसे ही तुम लोगों को भी आचरण करना अवश्य चाहिये॥२२॥

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