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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    दैव्या॑ होताराऽ उ॒र्ध्वम॑ध्व॒रं नो॒ऽग्नेर्जिह्वाम॒भि गृ॑णीतम्। कृ॒णु॒तं नः॒ स्विष्टिम्॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑। हो॒ता॒रा॒। ऊ॒र्ध्वम्। अ॒ध्व॒रम्। नः॒। अ॒ग्नेः। जि॒ह्वाम्। अ॒भि। गृ॒णी॒त॒म् कृ॒णु॒तम्। नः॒ स्वि᳖ष्टि॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टिम् ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होताराऽऊर्ध्वमध्वरन्नो ग्नेर्जुह्वामभि गृणीतम् । कृणुतम्नः स्विष्टम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। ऊर्ध्वम्। अध्वरम्। नः। अग्नेः। जिह्वाम्। अभि। गृणीतम् कृणुतम्। नः स्विष्टिमिति सुऽइष्टिम्॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    जो (दैव्या) विद्वानो में प्रसिद्ध हुए दो विद्वान् (होतारा) सुख के देने वाले (नः) हमारे (ऊर्ध्वम्) उन्नति को प्राप्त (अध्वरम्) नहीं बिगाड़ने योग्य व्यवहार की (अभि, गृणीतम्) सब ओर से प्रशंसा करें वे दोनों (नः) हमारी (स्विष्टिम्) सुन्दर यज्ञ के निमित्त (अग्नेः) अग्नि की (जिह्वाम्) ज्वाला को (कृणुतम्) सिद्ध करें॥१८॥

    भावार्थ - जो जिज्ञासु और अध्यापक लोग अग्नि की विद्या को जानें तो विश्व की उन्नति करें॥१८॥

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