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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 30
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - स्त्रियो देवताः छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    व्यच॑स्वतीरुर्वि॒या वि श्र॑यन्तां॒ पति॑भ्यो॒ न जन॑यः॒ शुम्भ॑मानाः।देवी॑र्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा दे॒वेभ्यो॑ भवत सुप्राय॒णाः॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्यच॑स्वतीः। उ॒र्वि॒या। वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। पति॑भ्य॒ इति॒ पति॑ऽभ्यः। न। जन॑यः। शुम्भ॑मानाः। देवीः॑। द्वारः॒। बृ॒ह॒तीः॒। वि॒श्व॒मि॒न्वा॒ इति॑ विश्वम्ऽइन्वाः। दे॒वेभ्यः॑। भ॒व॒त॒। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यचस्वतीरुर्विया विश्रयन्ताम्पतिभ्यो न जनयः शुम्भमानाः । देवीर्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा देवेभ्यो भवत सुप्रायणाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    व्यचस्वतीः। उर्विया। वि। श्रयन्ताम्। पतिभ्य इति पतिऽभ्यः। न। जनयः। शुम्भमानाः। देवीः। द्वारः। बृहतीः। विश्वमिन्वा इति विश्वम्ऽइन्वाः। देवेभ्यः। भवत। सुप्रायणाः। सुप्रायना इति सुऽप्रायनाः॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे (उर्विया) अधिकता से शुभ गुणों में (व्यचस्वतीः) व्याप्ति वाली (बृहतीः) महती (विश्वमिन्वाः) सब व्यवहारों में व्याप्त (सुप्रायणाः) जिनके होने में उत्तम घर हों (देवीः) आभूषणादि से प्रकाशमान (द्वारः) दरवाजों के (न) समान अवकाश वाली (पतिभ्यः) पाणिग्रहण विवाह करने वाले (देवेभ्यः) उत्तम गुणयुक्त पतियों के लिए (शुम्भमानाः) उत्तम शोभायमान हुई (जनयः) सब स्त्रियां अपने व पतियों को (वि, श्रयन्ताम्) विशेष कर सेवन करें, वैसे तुम लोग सब विद्याओं में व्यापक (भवत) होओ॥३०॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे व्यापक हुई दिशा अवकाश देने और सब के व्यवहारों की साधक होने से आनन्द देने वाली होती है, वैसे ही आपस में प्रसन्न हुए स्त्रीपुरुष उत्तम सुखों को प्राप्त हो के अन्यों के हितकारी होवें॥३०॥

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