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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 37
    ऋषिः - मधुच्छन्छा ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्याऽअपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षद्भि॒रित्यु॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒ ॥३७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    केतुङ्कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्याऽअपेशसे । समुषद्भिरजायथाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    केतुम्। कृण्वन्। अकेतवे। पेशः। मर्याः। अपेशसे। सम्। उषद्भिरित्युषत्ऽभिः। अजायथाः॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् पुरुष! जैसे (मर्याः) मनुष्य (अपेशसे) जिसके सुवर्ण नहीं है, उसके लिए (पेशः) सुवर्ण को और (अकेतवे) जिस को बुद्धि नहीं है, उसके लिए (केतुम्) बुद्धि को करते हैं, उन (उषद्भिः) होम करने वाले यजमान पुरुषों के साथ बुद्धि और धन को (कृण्वन्) करते हुए आप (सम्, अजायथाः) सम्यक् प्रसिद्ध हूजिये॥३७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही आप्तजन हैं जो अपने आत्मा के तुल्य अन्यों का भी सुख चाहते हैं, उन्हीं के सङ्ग से विद्या की प्राप्ति अविद्या की हानि, धन का लाभ और दरिद्रता का विनाश होता है॥३७॥

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