यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 30
ऋषिः - सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः
देवता - ब्रह्मणस्पतिर्देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
8
मा नः॒ शꣳसो॒ऽअर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ् मर्त्य॑स्य। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते॥३०॥
स्वर सहित पद पाठमा। नः॒। शꣳसः॑। अर॑रुषः। धू॒र्तिः। प्रण॑क्। मर्त्य॑स्य। रक्ष॑। नः॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒ ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नः शँसो अररुषो धूर्तिः प्र णङ्नर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥
स्वर रहित पद पाठ
मा। नः। शꣳसः। अररुषः। धूर्तिः। प्रणक्। मर्त्यस्य। रक्ष। नः। ब्रह्मणः। पते॥३०॥
विषय - फिर भी उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर! आपकी कृपा से (नः) हमारी वेदविद्या (मा, प्रणक्) कभी नष्ट मत हो और जो (अररुषः) दान आदि धर्मरहित परधन ग्रहण करने वाले (मर्त्यस्य) मनुष्य की (धूर्तिः) हिंसा अर्थात् द्रोह है, उस से (नः) हम लोगों की निरन्तर (रक्ष) रक्षा कीजिये॥३०॥
भावार्थ - मनुष्यों को सदा उत्तम-उत्तम काम करना और बुरे-बुरे काम छोड़ना तथा किसी के साथ द्रोह वा दुष्टों का सङ्ग भी न करना और धर्म की रक्षा वा परमेश्वर की उपासना स्तुति और प्रार्थना निरन्तर करनी चाहिये॥३०॥
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