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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 38
    ऋषिः - आसुरिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    आग॑न्म वि॒श्ववे॑दसम॒स्मभ्यं॑ वसु॒वित्त॑मम्। अग्ने॑ सम्राड॒भि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। अ॒ग॒न्म॒। वि॒श्ववे॑दस॒मिति॑ वि॒श्वऽवे॑दसम्। अ॒स्मभ्य॑म्। व॒सु॒वित्त॑म॒मिति॑ वसु॒वित्ऽत॑मम्। अग्ने॑। स॒म्रा॒डिति॑ सम्ऽराट्। अ॒भि। द्यु॒म्नम्। अ॒भि। सहः॑। आ। य॒च्छ॒स्व॒ ॥३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आगन्म विश्ववेदसमस्मभ्यँवसुवित्तमम् । अग्ने सम्राडभि द्युम्नमभि सह आ यच्छस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अगन्म। विश्ववेदसमिति विश्वऽवेदसम्। अस्मभ्यम्। वसुवित्तममिति वसुवित्ऽतमम्। अग्ने। सम्राडिति सम्ऽराट्। अभि। द्युम्नम्। अभि। सहः। आ। यच्छस्व॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    हे (सम्राट्) प्रकाशस्वरूप (अग्ने) जगदीश्वर! आप (अस्मभ्यम्) उपासना करने वाले हम लोगों के लिये (द्युम्नम्) प्रकाशस्वरूप उत्तम यश वा (सहः) उत्तम बल को (अभ्यायच्छस्व) सब ओर से विस्तारयुक्त करते हो, इसलिये हम लोग (वसुवित्तमम्) पृथिवी आदि लोकों के जानने वा (विश्ववेदसम्) सब सुखों के जानने वाले आपको (अभ्यागन्म) सब प्रकार प्राप्त होवें॥१॥३८॥ जो यह (सम्राट्) प्रकाश होने वाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (अस्मभ्यम्) यज्ञ के अनुष्ठान करने वाले हम लोगों के लिये (द्युम्नम्) उत्तम-उत्तम यश वा (सहः) उत्तम-उत्तम बल को (अभ्यायच्छस्व) सब प्रकार विस्तारयुक्त करता है, उस (वसुवित्तमम्) पृथिवी आदि लोकों को सूर्यरूप से प्रकाश करके प्राप्त कराने वा (विश्ववेदसम्) सब सुखों को जानने वाले अग्नि को हम लोग (अभ्यागन्म) सब प्रकार प्राप्त होवें॥३८॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परमेश्वर वा भौतिक अग्नि के गुणों को जानने वा उसके अनुसार अनुष्ठान करने से कीर्ति, यश और बल का विस्तार करना चाहिये॥२॥३८॥

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