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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 17
    ऋषिः - लुशो धानाक ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    म॒होऽअ॒ग्नेः स॑मिधा॒नस्य॒ शर्म॒ण्यना॑गा मि॒त्रे वरु॑णे स्व॒स्तये॑। श्रेष्ठे॑ स्याम सवि॒तुः सवी॑मनि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ऽअ॒द्या वृ॑णीमहे॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः। अ॒ग्नेः। स॒मि॒धा॒नस्येति॑ सम्ऽइधा॒नस्य॑। शर्म॑णि। अना॑गाः। मि॒त्रे। वरु॑णे। स्व॒स्तये॑ ॥ श्रेष्ठे॑। स्या॒म॒। स॒वि॒तुः। सवी॑मनि। तत्। दे॒वाना॑म्। अवः॑। अ॒द्य। वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महोऽअग्नेः समिधानस्य शर्मण्यनागा मित्रे वरुणे स्वस्तये । श्रेष्ठे स्याम सवितुः सवीमनि तद्देवानामवोऽअद्या वृणीमहे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महः। अग्नेः। समिधानस्येति सम्ऽइधानस्य। शर्मणि। अनागाः। मित्रे। वरुणे। स्वस्तये॥ श्रेष्ठे। स्याम। सवितुः। सवीमनि। तत्। देवानाम्। अवः। अद्य। वृणीमहे॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    हम राजपुरुष (महः) बड़े (समिधानस्य) प्रकाशमान (अग्नेः) विज्ञानवान् सभापति के (शर्मणि) आश्रय में (श्रेष्ठे) श्रेष्ठ (मित्रे) मित्र और (वरुणे) स्वीकार के योग्य मनुष्यों के निमित्त (अनागाः) अपराधरहित (स्याम) हों, (अद्य) आज (सवितुः) सब जगत् के उत्पादक परमेश्वर की (सवीमनि) आज्ञा में वर्त्तमान (स्वस्तये) सुख के लिये (देवानाम्) विद्वानों के (तत्) उस वेदोक्त (अवः) रक्षा आदि कर्म को (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं॥१७॥

    भावार्थ - धार्मिक विद्वान् राजपुरुषों को चाहिये कि अधर्म को छोड़ धर्म में प्रवृत्त हों, परमेश्वर की सृष्टि में विविध प्रकार की रचना देख अपनी और दूसरों की रक्षा कर ईश्वर का धन्यवाद किया करें॥१७॥

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