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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 50
    ऋषिः - प्रगाथ ऋषिः देवता - महेन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒स्मे रु॒द्रा मे॒हना॒ पर्व॑तासो वृत्र॒हत्ये॒ भर॑हूतौ स॒जोषाः॑। यः शꣳस॑ते स्तुव॒ते धायि॑ प॒ज्रऽइन्द्र॑ज्येष्ठाऽअ॒स्माँ२ऽअ॑वन्तु दे॒वाः॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। रु॒द्राः। मे॒हना॑। पर्व॑तासः। वृ॒त्र॒हत्य॒ इति॑ वृत्र॒ऽहत्ये॑। भर॑हूता॒विति॒ भर॑ऽहूतौ। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॑ ॥ यः। शꣳस॑ते। स्तु॒व॒ते। धायि॑। प॒ज्रः। इन्द्र॑ज्येष्ठा॒ इतीन्द्र॑ऽज्येष्ठाः। अ॒स्मान्। अ॒व॒न्तु॒। दे॒वाः ॥५० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मे रुद्रा मेहना पर्वतासो वृत्रहत्ये भरहूतौ सजोषाः । यः शँसते स्तुवते धायि पज्रऽइन्द्रज्येष्ठा अस्माँऽअवन्तु देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मेऽइत्यस्मे। रुद्राः। मेहना। पर्वतासः। वृत्रहत्य इति वृत्रऽहत्ये। भरहूताविति भरऽहूतौ। सजोषा इति सऽजोषाः॥ यः। शꣳसते। स्तुवते। धायि। पज्रः। इन्द्रज्येष्ठा इतीन्द्रऽज्येष्ठाः। अस्मान्। अवन्तु। देवाः॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 50
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यः) जो (पज्रः) संचित धनवाला जन जिनकी (शंसते) प्रशंसा और (स्तुवते) स्तुति करता और जिसने धन को (धायि) धारण किया है, उस और (अस्मान्) हमारी जो (अस्मे) हमारे बीच में (मेहना) धनादि को छोड़ने (रुद्राः) शत्रुओं को रुलाने और (पर्वतासः) उत्सवोंवाले (वृत्रहत्ये) दुष्ट को मारने के लिये (भरहूतौ) संग्राम में बुलाने के विषय में (सजोषा) एकसी प्रीतिवाले (इन्द्रज्येष्ठाः) सभापति राजा जिनमें बड़ा है, ऐसे (देवाः) विद्वान् लोग (अवन्तु) रक्षा करें, वे तुम्हारी भी रक्षा करें॥५०॥

    भावार्थ - जो राजपुरुष पदार्थों की स्तुति करनेवाले, श्रेष्ठों के रक्षक, दुष्टों के ताड़क, युद्ध में प्रीति रखनेवाले, मेघ के तुल्य पालक, प्रशंसा के योग्य हैं, वे सबको सेवन योग्य होते हैं॥५०॥

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