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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑।यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं वि॒शेवि॑शे॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। इ॒ह। प्र॒थ॒मः। धा॒यि॒। धा॒तृभि॒रिति॑ धा॒तृऽभिः॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः॑ ॥ यम्। अप्न॑वानः। भृग॑वः। वि॒रु॒रु॒चुरिति॑ विऽरुरु॒चुः। वने॑षु। चि॒त्रम्। वि॒भ्व᳖मिति॑ वि॒भ्व᳖म्। वि॒शवि॑शे॒ इति॑ वि॒शेऽवि॑शे ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्हाता यजिष्ठोऽअध्वरेष्वीड्यः । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रँविभ्वँविशेविशे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। इह। प्रथमः। धायि। धातृभिरिति धातृऽभिः। होता। यजिष्ठः। अध्वरेषु। ईड्यः॥ यम्। अप्नवानः। भृगवः। विरुरुचुरिति विऽरुरुचुः। वनेषु। चित्रम्। विभ्वमिति विभ्वम्। विशविशे इति विशेऽविशे॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे (धातृभिः) धारण करनेवालों से (इह) इस संसार में (विशे विशे) प्रजा-प्रजा के लिये (अयम्) यह (प्रथमः) विस्तारवाला (होता) सुखदाता (यजिष्ठः) अतिशय कर संगत करनेवाला (अध्वरेषु) रक्षणीय व्यवहारों में (ईड्यः) खोजने योग्य विद्युत् आदि स्वरूप अग्नि (धायि) धारण किया जाता और जैसे (भृगवः) दृढ़ ज्ञान वाले (अप्नवानः) सुसन्तानों के सहित उत्तम शिष्य लोग (यम्) जिस (वनेषु) वनों वा किरणों में (चित्रम्) आश्चर्यरूप गुण, कर्म, स्वभाव (विभ्वम्) व्यापक विद्युत् रूप अग्नि को (विरुरुचुः) विशेष कर प्रदीप्त करें, वैसे उसको तुम लोग भी धारण और प्रकाशित करो॥६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग इस संसार में बिजुली की विद्या को जानते हैं, वे सब प्रजाओं को सब सुखों से युक्त करने को समर्थ होते हंै॥६॥

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