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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 73
    ऋषिः - दक्ष ऋषिः देवता - अध्वर्यू देवते छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    दैव्या॑वध्वर्यू॒ आ ग॑त॒ꣳ रथे॑न॒ सूर्य॑त्वचा।मध्वा॑ य॒ज्ञꣳ सम॑ञ्जाथे। तं प्र॒त्नथा॑। अ॒यं वे॒नः॥७३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्यौ॑। अ॒ध्व॒र्यू॒ऽइत्य॑ध्वर्यू। आ। ग॒त॒म्। रथे॑न। सूर्य॑त्व॒चेति॒ सूर्य॑ऽत्वचा ॥ मध्वा॑। य॒ज्ञम्। सम्। अ॒ञ्जा॒थ॒ऽ इत्य॑ञ्जाथे ॥७३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्यावध्वर्यूऽआ गतँ रथेन सूर्यत्वचा । मध्वा यज्ञँ समञ्जाथे । तम्प्रत्नथायँवेनः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्यौ। अध्वर्यूऽइत्यध्वर्यू। आ। गतम्। रथेन। सूर्यत्वचेति सूर्यऽत्वचा॥ मध्वा। यज्ञम्। सम्। अञ्जाथऽ इत्यञ्जाथे॥७३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 73
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    पदार्थ -
    हे (दैव्यौ) विद्वानों में कुशल प्रवीण (अध्वर्यू) अपने आत्मा को अहिंसा धर्म चाहते हुए विद्वानो! तुम दोनों (सूर्यत्वचा) सूर्य के तुल्य कान्तिवाले (रथेन) आनन्द के हेतु यान से (आ, गतम्) आया करो और आकर (मध्वा) मधुर भाषण से (यज्ञम्) चलने रूप व्यवहार को (सम्, अञ्जाथे) सम्यक् प्रकट करो॥७३॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि पृथिवी, जल और अन्तरिक्ष में चलनेवाले उत्तम शोभायमान सूर्य के तुल्य प्रकाशित यानों को बनावें और उनसे अभीष्ट कामनाओं को सिद्ध करें॥७३॥

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