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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 77
    ऋषिः - सुहोत्रऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृद् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    उप॑ नः सू॒नवो॒ गिरः॑ शृ॒ण्वन्त्व॒मृत॑स्य॒ ये।सु॒मृ॒डी॒का भ॑वन्तु नः॥७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। नः॒। सू॒नवः॑। गिरः॑। शृ॒ण्वन्तु॑। अ॒मृत॑स्य। ये ॥ सु॒मृ॒डी॒का इति॑ सुऽमृडी॒का भ॒व॒न्तु॒। नः॒ ॥७७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप नः सूनवो गिरः शृण्वन्त्वमृतस्य ये । सुमृडीका भवन्तु नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। नः। सूनवः। गिरः। शृण्वन्तु। अमृतस्य। ये॥ सुमृडीका इति सुऽमृडीका भवन्तु। नः॥७७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 77
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    पदार्थ -
    (ये) जो (नः) हमारे (सूनवः) सन्तान (अमृतस्य) नाशरहित परमेश्वर के सम्बन्ध की वा नित्य वेद की (गिरः) वाणियों को (उप, शृण्वन्तु) अध्यापकादि के निकट सुनें वे (नः) हमारे लिये (सुमृडीकाः) उत्तम सुख करनेहारे (भवन्तु) होवें॥७७॥

    भावार्थ - जो माता-पिता अपने पुत्रों और कन्याओं को ब्रह्मचर्य के साथ वेदविद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त कर शरीर और आत्मा के बलवाले करें तो उन सन्तानों के लिये अत्यन्त हितकारी हों॥७७॥

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