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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद् द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑।समि॑द्धः शु॒क्रऽआहु॑तः॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। वृ॒त्राणि॑। ज॒ङ्घ॒न॒त्। द्र॒वि॒ण॒स्युः। विप॒न्यया॑। समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। शु॒क्रः। आहु॑त॒ इत्याऽहु॑तः ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। वृत्राणि। जङ्घनत्। द्रविणस्युः। विपन्यया। समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। शुक्रः। आहुत इत्याऽहुतः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (समिद्धः) सम्यक् प्रदीप्त (शुक्रः) शीघ्रकारी (अग्निः) सूर्य्यादिरूप अग्नि (वृत्राणि) मेघ के अवयवों को (जङ्घनत्) शीघ्र काटता है, वैसे (द्रविणस्युः) अपने धन को चाहनेवाले (आहुतः) बुलाये हुए आप (विपन्यया) विशेष व्यवहार की युक्ति से दुष्टों को शीघ्र मारिये॥९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे व्यवहार का जाननेवाला पुरुष धन को पाके सत्कार को प्राप्त होकर दोषों को नष्ट करता है, वैसे सूर्य मेघ को ताड़ना देता है॥९॥

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