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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 27
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - भूरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्,स्वराट आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः, गान्धारः
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    अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑त॒मेनो॑ऽयासिष॒मव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पु॒रु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि। दे॒वाना॑ स॒मिद॑सि॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चु॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निऽचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चु॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। ए॑नः। अ॒या॒सि॒ष॒म्। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑कृतम्। पु॒रु॒राव्ण॒ इति॑ पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒। दे॒वाना॑म्। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒ ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवभृथ निचुम्पुण निचेरुरसि निचुम्पुणः । अव देवैर्देवकृतमेनो यासिषमव मर्त्यैर्मर्त्यकृतम्पुरुराव्णो देव रिषस्पाहि । देवानाँ समिदसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवभृथेत्यवऽभृथ। निचुम्पुणेति निऽचुम्पुण। निचेरुरिति निऽचेरुः। असि। निचुम्पुण इति निऽचुम्पुणः। अव। देवैः। देवकृतमिति देवऽकृतम्। एनः। अयासिषम्। अव। मर्त्यैः। मर्त्यकृतमिति मर्त्यकृतम्। पुरुराव्ण इति पुरुऽराव्णः। देव। रिषः। पाहि। देवानाम्। समिदिति सम्ऽइत्। असि॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -
    हे (अवभृथ) गर्भ के धारण करने के पश्चात् उसकी रक्षा करने (निचुम्पुण) और मन्द-मन्द चलने वाले पति! आप (निचुम्पुणः) नित्य मन हरने और (निचेरुः) धर्म्म के साथ नित्य द्रव्य का संचय करने वाले (असि) हैं तथा (देवानाम्) विद्वानों के बीच में (समित्) अच्छे प्रकार तेजस्वी (असि) हैं। हे (देव) सब से अपनी जय चाहने वाले! (देवैः) विद्वान् और (मर्त्यैः) साधारण मनुष्यों के साथ वर्त्तमान आप, जो मैं (देवकृतम्) कामी पुरुषों वा (मृर्त्यकृतम्) साधारण मनुष्यों के किये हुए (एनः) अपराध को (अयासिषम्) प्राप्त होना चाहूं, उस (पुरुराव्णः) बहुत से अपराध करने वालों के (रिषः) धर्म्म छुड़ाने वाले काम से मुझे (पाहि) दूर रख॥२७॥

    भावार्थ - स्त्री अपने पति से नित्य प्रार्थना करे कि जैसे मैं सेवा के योग्य आनन्दित चित्त आप को प्रतिदिन चाहती हूं, वैसे आप भी मुझे चाहो और अपने पुरुषार्थ भर मेरी रक्षा करो, जिससे मैं दुष्टाचरण करने वाले मनुष्य के किये हुए अपराध की भागिनी किसी प्रकार न होऊं॥२७॥

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