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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 54
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - परमेष्ठीप्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    8

    प॒र॒मे॒ष्ठ्यभिधी॑तः प्रजाप॑तिर्वा॒चि व्याहृ॑ताया॒मन्धो॒ऽअच्छे॑तः। सवि॒ता स॒न्यां वि॒श्वक॑र्मा दी॒क्षायां॑ पू॒षा सो॑म॒क्रय॑ण्याम्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। अ॒भिधी॑त॒ इत्य॒भिऽधी॑तः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वा॒चि। व्याहृ॑ताया॒मिति॑ विऽआहृ॑तायाम्। अन्धः॑। अच्छे॑त॒ इत्यच्छ॑ऽइतः। स॒वि॒ता। स॒न्याम्। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। दी॒क्षाया॑म्। पू॒षा। सो॒म॒क्रय॑ण्या॒मिति॑ सोम॒ऽक्रय॑ण्याम् ॥५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परमेष्ठ्यभिधीतः प्रजापतिर्वाचि व्याहृतायामन्धो अच्छेतः सविता सन्याँविश्वकर्मा दीक्षायाम्पूषा सोमक्रयण्यामिन्द्रश्च॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परमेष्ठी। परमेस्थीति परमेऽस्थी। अभिधीत इत्यभिऽधीतः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। वाचि। व्याहृतायामिति विऽआहृतायाम्। अन्धः। अच्छेत इत्यच्छऽइतः। सविता। सन्याम्। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्म्मा। दीक्षायाम्। पूषा। सोमक्रयण्यामिति सोमऽक्रयण्याम्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    हे गृहस्थो! तुम न यदि (व्याहृतायाम्) उच्चरित उपदृष्टि की हुई (वाचि) वेदवाणी में (परमेष्ठी) परमान्दस्वरूप में स्थित (प्रजापतिः) समस्त प्रजा के स्वामी को (अच्छेतः) अच्छे प्रकार प्राप्त (विश्वकर्मा) सब विद्या और कर्म्मों को जानने वाले सर्वथा श्रेष्ठ सभापति को (दीक्षायाम्) सभा के नियमों के धारण में (सोमक्रयण्याम्) ऐश्वर्य ग्रहण करने में (पूषा) सब को पुष्ट करनेहारे उत्तम वैद्य को और (सन्याम्) जिससे सनातन सत्य प्राप्त हो, उसमें (सविता) सब जगत् का उत्पादक (अभिधीतः) सुविचार से धारण किया (अन्धः) उत्तम सुसंस्कृत अन्न का सेवन किया तो सदा सुखी हों॥५४॥

    भावार्थ - जो ईश्वर वेदविद्या से अपने सांसारिक जीवों और जगत् के गुण कर्म्म स्वभावों को प्रकाशित न करता तो किसी मनुष्य को विद्या और इन का ज्ञान न होता और विद्या वा उक्त पदार्थों के ज्ञान के विना निरन्तर सुख क्योंकर हो सकता है॥५४॥

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