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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 40
पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ पुन॑रग्नऽइ॒षायु॑षा। पुन॑र्नः पा॒ह्यꣳह॑सः॥४०॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑। ऊ॒र्जा। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। पुनः॑। अ॒ग्ने॒। इ॒षा। आयु॑षा। पुनः॑। नः॒। पा॒हि॒। अꣳह॑सः ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरूर्जा निवर्तस्व पुनरग्न इषायुषा । पुनर्नः पाह्यँहसः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पुनः। ऊर्जा। नि। वर्त्तस्व। पुनः। अग्ने। इषा। आयुषा। पुनः। नः। पाहि। अꣳहसः॥४०॥
विषयः - पुनः पुत्रैर्जनकजननीभ्यां परस्परं वर्त्तमानं योग्यं कार्य्यमित्याह॥
अन्वयः - हे अग्ने मातः पितश्च! त्वमिषायुषा सह नो वर्धय पुनरंहसः पाहि। हे पुत्र! त्वमूर्जा सह निवर्त्तस्व। पुनर्नोऽस्मानंहसः पाहि॥४०॥
पदार्थः -
(पुनः) (ऊर्जा) पराक्रमेण (नि) (वर्त्तस्व) (पुनः) (अग्ने) (इषा) अन्नेन (आयुषा) जीवनेन (पुनः) (नः) अस्मभ्यम् (पाहि) (अंहसः) पापाचरणात्। [अयं मन्त्रः शत॰६.८.२.६ व्याख्यातः]॥४०॥
भावार्थः - यथा विद्वांसो मातापितरः सुसन्तानान् विद्यया सुशिक्षया दुष्टाचारात् पृथग् रक्षेयुस्तथाऽपत्यान्य-प्येतान् पापाचरणात् सततं पृथग् रक्षेयुः। नैवं विना सर्वे धर्मचारिणो भवितुं शक्नुवन्ति॥४०॥
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