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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 106
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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श्रु꣣꣬ष्ट्य꣢꣯ग्ने꣣ नव꣢स्य मे स्तो꣡म꣢स्य वीर विश्पते । नि꣢ मा꣣यि꣢न꣣स्त꣡प꣢सा र꣣क्ष꣡सो꣢ दह ॥१०६॥
स्वर सहित पद पाठश्रु꣣ष्टी꣢ । अ꣣ग्ने । न꣡व꣢꣯स्य । मे꣣ । स्तो꣡म꣢꣯स्य । वी꣣र । विश्पते । नि꣢ । मा꣣यि꣡नः꣢ । त꣡प꣢꣯सा । र꣣क्ष꣡सः । द꣣ह ॥१०६॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुष्ट्यग्ने नवस्य मे स्तोमस्य वीर विश्पते । नि मायिनस्तपसा रक्षसो दह ॥१०६॥
स्वर रहित पद पाठ
श्रुष्टी । अग्ने । नवस्य । मे । स्तोमस्य । वीर । विश्पते । नि । मायिनः । तपसा । रक्षसः । दह ॥१०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 106
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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विषय - अगले मन्त्र में राक्षसों के विनाश की प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
(श्रुष्टी) शीघ्र ही, हे (वीर) पराक्रमशाली, (विश्पते) प्रजापालक (अग्ने) तेजस्वी परमात्मन् वा राजन् ! आप (मे) मेरे (नवस्य) प्रशंसायोग्य (स्तोमस्य) आन्तरिक सद्गुणों की सेना के तथा बाह्य योद्धाओं की सेना के (तपसा) तेज से (मायिनः) मायावी, छल-कपटपूर्ण (रक्षसः) राक्षसी भावों और राक्षसजनों को (नि दह) पूर्णतः भस्म कर दीजिए ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥१०॥
भावार्थ - जो कोई पाप-रूप अथवा पापी-रूप मायावी राक्षस हमें सताते हैं, उन्हें हम अपनी शुभ मनोवृत्तियों से और बलवान् योद्धाओं से तथा परमात्मा और राजा की सहायता से पराजित करके आन्तरिक और बाह्य सुराज्य का उपभोग करें ॥१०॥ इस दशति में अग्नि, पवमान और अदिति नामों से परमात्मा का स्मरण होने से, परमात्मा से धन-कीर्ति आदि की याचना होने से तथा उससे शत्रु-विनाश, राक्षसदाह आदि की प्रार्थना होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥
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