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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1084
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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रे꣣व꣡ती꣢र्नः सध꣣मा꣢द꣣ इ꣡न्द्रे꣢ सन्तु तु꣣वि꣡वा꣢जाः । क्षु꣣म꣢न्तो꣣ या꣢भि꣣र्म꣡दे꣢म ॥१०८४॥

स्वर सहित पद पाठ

रे꣣व꣡तीः꣢ । नः꣣ । सधमा꣡दे꣢ । स꣣ध । मा꣡दे꣢꣯ । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । स꣣न्तु । तुवि꣡वा꣢जाः । तु꣣वि꣢ । वा꣣जाः । क्षुम꣡न्तः꣢ । या꣡भिः꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯म ॥१०८४॥


स्वर रहित मन्त्र

रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः । क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥१०८४॥


स्वर रहित पद पाठ

रेवतीः । नः । सधमादे । सध । मादे । इन्द्रे । सन्तु । तुविवाजाः । तुवि । वाजाः । क्षुमन्तः । याभिः । मदेम ॥१०८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1084
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(सधमादे) जहाँ मन, बुद्धि इन्द्रियाँ आदि सब मिलकर प्रहृष्ट होती हैं, उस योगयज्ञ में (नः) हम उपासकों की (रेवतीः) ऐश्वर्यवती मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि वृत्तियाँ (तुविवाजाः) बहुत बलवती होती हुई (इन्द्रे) जीवात्मा में (सन्तु) विद्यमान होवें (याभिः) जिन वृत्तियों से (क्षुमन्तः) निवासयुक्त होकर हम (मदेम) आनन्दलाभ करें ॥१॥

भावार्थ - प्राणियों के सुखभोगयुक्त होने पर उनके प्रति मैत्री की भावना रखे, दुःखियों के प्रति करुणा की, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता की और अपुण्यशीलों के प्रति उपेक्षा की। इस प्रकार भावना करनेवालों के अन्दर शुक्ल धर्म उत्पन्न हो जाता है। उससे चित्त प्रसादयुक्त होता है और प्रसन्न तथा एकाग्र होकर स्थितिपद को पा लेता है। ये चित्तवृत्तियाँ जब मनुष्य के आत्मा में उद्भूत होती हैं, तब चित्तप्रसाद से वह निवासयुक्त और आनन्दवान् हो जाता है ॥१॥

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