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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 109
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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तं꣡ गू꣢र्धया꣣꣬ स्व꣢꣯र्णरं दे꣣वा꣡सो꣢ दे꣣व꣡म꣢र꣣तिं꣡ द꣢धन्विरे । दे꣣वत्रा꣢ ह꣣व्य꣡मू꣢हिषे ॥१०९॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । गू꣣र्धय । स्व꣢꣯र्णरम् । स्वः꣢꣯ । न꣣रम् । देवा꣡सः꣢ । दे꣣व꣢म् । अ꣣रति꣢म् । द꣣धन्विरे । देवत्रा꣢ । ह꣣व्य꣢म् । ऊ꣣हिषे ॥१०९॥
स्वर रहित मन्त्र
तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे । देवत्रा हव्यमूहिषे ॥१०९॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । गूर्धय । स्वर्णरम् । स्वः । नरम् । देवासः । देवम् । अरतिम् । दधन्विरे । देवत्रा । हव्यम् । ऊहिषे ॥१०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 109
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा की अर्चना के लिए प्रेरणा की गयी है।
पदार्थ -
हे मनुष्य ! तू (तम्) उस प्रसिद्ध, (स्वर्णरम्) मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करानेवाले परमात्मा-रूप अग्नि की (गूर्धय) आराधना कर, जिस (देवम्) तेज से देदीप्यमान तथा तेज से प्रदीप्त करनेवाले, (अरतिम्) सर्वान्तर्यामी, पुरुषार्थ में प्रेरित करनेवाले, पाप आदि के संहारक परमात्मा-रूप अग्नि को (देवासः) विद्वान् लोग (दधन्विरे) अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं। अब परमात्माग्नि को सम्बोधन करते हैं—हे परमात्माग्ने ! आप (देवत्रा) विद्वानों में (हव्यम्) दातव्य बल को (ऊहिषे) प्राप्त कराते हो ॥३॥
भावार्थ - मनीषी लोग जिस देवाधिदेव, जगत् की रचना करनेहारे जगदीश्वर की आराधना करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि के सुख को प्राप्त करते हैं, उसकी सभी जन उपासना क्यों न करें? ॥३॥
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