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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1110
ऋषिः - भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - द्विपदा त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
इ꣣मा꣢꣫ नु कं꣣ भु꣡व꣢ना सीषधे꣣मे꣡न्द्र꣢श्च꣣ वि꣡श्वे꣢ च दे꣣वाः꣢ ॥१११०
स्वर सहित पद पाठइ꣣मा꣢ । नु । क꣣म् । भु꣡व꣢꣯ना । सी꣣षधेम । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣣ । वि꣡श्वे꣢꣯ । च꣣ । देवाः꣢ ॥१११०॥१
स्वर रहित मन्त्र
इमा नु कं भुवना सीषधेमेन्द्रश्च विश्वे च देवाः ॥१११०
स्वर रहित पद पाठ
इमा । नु । कम् । भुवना । सीषधेम । इन्द्रः । च । विश्वे । च । देवाः ॥१११०॥१
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1110
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४५२ क्रमाङ्क पर अध्यात्म विषय में और राष्ट्र के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ भिन्न अर्थ प्रदर्शित किया जाता है।
पदार्थ -
हम (इन्द्रः च) हमारा जीवात्मा (विश्वे च देवाः) और मन, बुद्धि, प्राण, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय रूप अन्य देव मिलकर (नु कम्) शीघ्र ही (इमा भुवना) इन सब सूर्य, चन्द्र, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, भूमि आदि भुवनों को (सीषधेम) सिद्ध् करें, अर्थात् उनके विषय में ज्ञान प्राप्त कर तथा साधनों का प्रयोग करके उन्हें अपने अनुकूल करें ॥१॥
भावार्थ - विद्वानों को चाहिए कि सब भूगोल और खगोल की विद्याएँ जानकर अन्य लोकों से होनेवाले सब लाभों को प्राप्त करें तथा उनसे सम्भावित हानियों को दूर करें ॥१॥
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