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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1156
ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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अ꣡षा꣢ढमु꣣ग्रं꣡ पृत꣢꣯नासु सास꣣हिं꣡ यस्मि꣢꣯न्म꣣ही꣡रु꣢रु꣣ज्र꣡यः꣢ । सं꣢ धे꣣न꣢वो꣣ जा꣡य꣢माने अनोनवु꣣र्द्या꣢वः꣣ क्षा꣡मी꣢रनोनवुः ॥११५६॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡षा꣢꣯ढम् । उ꣣ग्र꣢म् । पृ꣡त꣢꣯नासु । सा꣣सहि꣢म् । य꣡स्मि꣢꣯न् । म꣣हीः꣢ । उ꣣रुज्र꣡यः꣢ । उ꣣रु । ज्र꣡यः꣢꣯ । सम् । धे꣣न꣡वः꣢ । जा꣡य꣢꣯माने । अ꣣नोनवुः । द्या꣡वः꣢꣯ । क्षा꣡मीः꣢꣯ । अ꣣नोनवुः ॥११५६॥


स्वर रहित मन्त्र

अषाढमुग्रं पृतनासु सासहिं यस्मिन्महीरुरुज्रयः । सं धेनवो जायमाने अनोनवुर्द्यावः क्षामीरनोनवुः ॥११५६॥


स्वर रहित पद पाठ

अषाढम् । उग्रम् । पृतनासु । सासहिम् । यस्मिन् । महीः । उरुज्रयः । उरु । ज्रयः । सम् । धेनवः । जायमाने । अनोनवुः । द्यावः । क्षामीः । अनोनवुः ॥११५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1156
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(अषाढम्) किसी से भी परास्त न होनेवाले, (उग्रम्) पापियों के लिए प्रचण्ड, (पृतनासु) काम, क्रोध आदि की सेनाओं को (सासहिम्) पुनः-पुनः पराजय देनेवाले, उस परमेश्वर की [कर्मणा न किः नशत् न यज्ञैः] कर्म और यज्ञ में कोई बराबरी नहीं कर सकता, (यस्मिन्) जिसकी अधीनता में (उरुज्रयः) बहुत वेगवाली (महीः) पृथिवी, चन्द्र आदि लोकों में स्थित भूमियाँ हैं, जिसकी(जायमाने) जगत् की उत्पत्ति के अनन्तर प्रसिद्धि प्राप्त करने पर (धेनवः) वेदवाणियों ने (सम् अनोनुवः) प्रशंसा की, (द्यावः) सूर्यों ने और (क्षामीः) भूमिवासिनी प्रजाओं ने (सम् अनोनवुः) प्रशंसा की। [इस पदार्थ में ‘कर्मणा न किः नशत् न यज्ञैः’ ये शब्द पूर्व मन्त्र से लाये गए हैं।] ॥२॥

भावार्थ - ब्रह्माण्ड में अनेक सौरमण्डल हैं, जिनके पृथक्-पृथक् सूर्य हैं। वे सब लोक और मानवी प्रजाएँ सर्वविजेता परमात्मा की ही महिमा को गाते हैं ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अष्टम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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