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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1182
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
दे꣣वे꣡भ्य꣢स्त्वा꣣ म꣡दा꣢य꣣ क꣡ꣳ सृ꣢जा꣣न꣡मति꣢꣯ मे꣣꣬ष्यः꣢꣯ । सं꣡ गोभि꣢꣯र्वासयामसि ॥११८२॥
स्वर सहित पद पाठदेवे꣡भ्यः꣢꣯ । त्वा꣣ । म꣡दा꣢꣯य । कम् । सृ꣣जान꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । मे꣣ष्यः꣢꣯ । सम् । गो꣡भिः꣢꣯ । वा꣣सयामसि ॥११८२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवेभ्यस्त्वा मदाय कꣳ सृजानमति मेष्यः । सं गोभिर्वासयामसि ॥११८२॥
स्वर रहित पद पाठ
देवेभ्यः । त्वा । मदाय । कम् । सृजानम् । अति । मेष्यः । सम् । गोभिः । वासयामसि ॥११८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1182
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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विषय - अब जगदीश्वर को सम्बोधन करते हैं।
पदार्थ -
हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमेश्वर ! (मेष्यः) सींचनेवाली आनन्द-धाराएँ (अति सृजानम्) छोड़ते हुए, (कम्) सुखस्वरूप (त्वा) तुझे (देवेभ्यः) आत्मा, मन बुद्धि आदि के (मदाय) हर्ष के लिए हम (गोभिः) स्तुति-वाणियों से (संवासयामसि) संछादित करते हैं ॥५॥
भावार्थ - जगत्पति परमेश्वर उपासकों को आनन्द की धाराओं से सींचता हुआ और उनके आत्मा, मन, बुद्धि आदियों को तृप्त करता हुआ उनका उपकार करता है ॥५॥
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