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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1255
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
6
म꣣ह꣡त्तत्सोमो꣢꣯ महि꣣ष꣡श्च꣢कारा꣣पां꣡ यद्गर्भोऽवृ꣢꣯णीत दे꣣वा꣢न् । अ꣡द꣢धा꣣दि꣢न्द्रे꣣ प꣡व꣢मान꣣ ओ꣡जोऽज꣢꣯नय꣣त्सू꣢र्ये꣣ ज्यो꣢ति꣣रि꣡न्दुः꣢ ॥१२५५॥
स्वर सहित पद पाठम꣣ह꣢त् । तत् । सो꣡मः꣢꣯ । म꣣हिषः꣢ । च꣣कार । अ꣣पा꣢म् । यत् । ग꣡र्भः꣢꣯ । अ꣡वृ꣢꣯णीत । दे꣣वा꣢न् । अ꣡द꣢꣯धात् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानः । ओ꣡जः꣢꣯ । अ꣡ज꣢꣯नयत् । सू꣡र्ये꣢꣯ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । इ꣡न्दुः꣢꣯ ॥१२५५॥
स्वर रहित मन्त्र
महत्तत्सोमो महिषश्चकारापां यद्गर्भोऽवृणीत देवान् । अदधादिन्द्रे पवमान ओजोऽजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः ॥१२५५॥
स्वर रहित पद पाठ
महत् । तत् । सोमः । महिषः । चकार । अपाम् । यत् । गर्भः । अवृणीत । देवान् । अदधात् । इन्द्रे । पवमानः । ओजः । अजनयत् । सूर्ये । ज्योतिः । इन्दुः ॥१२५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1255
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - तृतीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५४२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ भी उसी विषय का वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(महिषः) महान् (सोमः) जगत् का रचयिता परमेश्वर (तत्) उस आगे वर्णित किये गये (महत्) महत्त्वपूर्ण कर्म को (चकार) करता है (यत्) कि (अपाम्) जल आदि पदार्थों में भी (गर्भः) गर्भरूप से विद्यमान वह (देवान्) सूर्य, चन्द्र, वायु, विद्युत् आदियों को वा प्राण, मन, चक्षु, श्रोत्र आदियों को (अवृणीत) रक्षणीय रूप में वरता है। (पवमानः) उस कर्मशूर ने (इन्द्रे) प्राण, पवन वा मन में (ओजः) बल (अदधात्) स्थापित किया है, (इन्दुः) उस ज्योतिष्मान् ने (सूर्ये) सूर्य में (ज्योतिः) ज्योति को (अजनयत्) उत्पन्न किया है ॥३॥
भावार्थ - परमात्मा के महान् कर्म बड़े ही आश्चर्यजनक हैं। प्राण में साँस की शक्ति, पवन में गति, मन में संकल्प, सूर्य में दीप्ति, चाँद में चाँदनी, नदियों में प्रवाह, पहाड़ों में दृढ़ता वही स्थापित करता है ॥३॥
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