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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1322
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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त्व꣡ꣳ हि रा꣢꣯धसस्पते꣣ रा꣡ध꣢सो म꣣हः꣢꣫ क्षय꣣स्या꣡सि꣢ विध꣣र्त्ता꣢ । तं꣡ त्वा꣢ व꣣यं꣡ म꣢घवन्निन्द्र गिर्वणः सु꣣ता꣡व꣢न्तो हवामहे ॥१३२२॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । हि । रा꣣धसः । पते । रा꣡ध꣢꣯सः । म꣣हः꣢ । क्ष꣡य꣢꣯स्य । अ꣡सि꣢꣯ । वि꣣धर्त्ता꣢ । वि꣣ । धर्त्ता꣢ । तम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । म꣣घवन् । इन्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । सुता꣡व꣢न्तः । ह꣣वामहे ॥१३२२॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ हि राधसस्पते राधसो महः क्षयस्यासि विधर्त्ता । तं त्वा वयं मघवन्निन्द्र गिर्वणः सुतावन्तो हवामहे ॥१३२२॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । हि । राधसः । पते । राधसः । महः । क्षयस्य । असि । विधर्त्ता । वि । धर्त्ता । तम् । त्वा । वयम् । मघवन् । इन्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । सुतावन्तः । हवामहे ॥१३२२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1322
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (राधसः पते) सकल ऋद्धि-सिद्धियों के अधीश्वर जगदीश वा आचार्यवर ! (त्वं हि) आप (महतः) महान् (क्षयस्य) निवासक, (राधसः) विद्या, तप, तेजस्विता आदि रूप धन के (विधर्ता) विशेष रूप से धारण करनेवाले (असि) हो। हे (मघवन्) विद्या आदि के दानी, (गिर्वणः) वाचस्पति (इन्द्र) अविद्या आदि के विदारक जगदीश्वर वा आचार्य ! (सुतावन्तः) श्रद्धारस का उपहार लिये हुए (वयम्) हम उपासक वा विद्यार्थी (त्वा) आपको (हवामहे) पुकार रहे हैं ॥२॥

भावार्थ - जैसे जगदीश्वर सब गुणों का अधिपति है, वैसे ही आचार्य वही हो सकता है जो विद्वान्, वाणी पर अधिकार रखनेवाला, तपस्वी, जितेन्द्रिय और शिक्षणकला में कुशल हो ॥२॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और आचार्य के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ दशम अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥

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