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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1352
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - आदित्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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सु꣣प्रावी꣡र꣢स्तु꣣ स꣢꣫ क्षयः꣣ प्र꣡ नु याम꣢꣯न्त्सुदानवः । ये꣡ नो꣢ अ꣡ꣳहो꣢ऽति꣣पि꣡प्र꣢ति ॥१३५२॥

स्वर सहित पद पाठ

सु꣣प्रावीः꣢ । सु꣣ । प्रावीः꣢ । अ꣣स्तु । सः꣢ । क्ष꣡यः꣢꣯ । प्र । नु । या꣡म꣢꣯न् । सु꣣दानवः । सु । दानवः । ये꣢ । नः꣣ । अ꣡ꣳहः꣢꣯ । अ꣣तिपि꣡प्र꣢ति । अ꣣ति । पि꣡प्र꣢꣯ति ॥१३५२॥


स्वर रहित मन्त्र

सुप्रावीरस्तु स क्षयः प्र नु यामन्त्सुदानवः । ये नो अꣳहोऽतिपिप्रति ॥१३५२॥


स्वर रहित पद पाठ

सुप्रावीः । सु । प्रावीः । अस्तु । सः । क्षयः । प्र । नु । यामन् । सुदानवः । सु । दानवः । ये । नः । अꣳहः । अतिपिप्रति । अति । पिप्रति ॥१३५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1352
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (सुदानवः) शुभ दानवाले उपासक विद्वान् जनो ! (ये) जो आप लोग (नः) हमारे (अंहः) पाप वा अपराध को (अतिपिप्रति) दूर करते हो, उन आप लोगों के (यामन्) आगमन होने पर (सः) वह (क्षयः) हमारा निवासगृह (सुप्रावीः) भली- भाँति प्रकृष्टरूप से रक्षित (नु) शीघ्र ही (प्र अस्तु) प्रबलरूप से होवे ॥२॥

भावार्थ - कर्तव्य और अकर्तव्य के उपदेशक उपासक विद्वान् जनों के समागम से लोग किसी भी पापकर्म में प्रवृत्त न होते हुए पुण्यशाली होते हैं ॥२॥

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