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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1423
ऋषिः - रेणुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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त्रि꣡र꣢स्मै स꣣प्त꣢ धे꣣न꣡वो꣢ दुदुह्रिरे स꣣त्या꣢मा꣣शि꣡रं꣢ प꣣रमे꣡ व्यो꣣मनि । च꣣त्वा꣢र्य꣣न्या꣡ भुव꣢꣯नानि नि꣣र्णि꣢जे꣣ चा꣡रू꣢णि चक्रे꣣ य꣢दृ꣣तै꣡रव꣢꣯र्धत ॥१४२३॥

स्वर सहित पद पाठ

त्रिः꣢ । अ꣣स्मै । सप्त꣢ । धे꣣न꣡वः꣢ । दुदुह्रिरे । सत्या꣢म् । आ꣣शि꣡र꣢म् । आ꣣ । शि꣡र꣢꣯म् । प꣣रमे꣢ । व्यो꣡म꣢नि । वि । ओ꣣मनि । चत्वा꣡रि꣢ । अ꣣न्या꣢ । अ꣣न् । या꣢ । भु꣡व꣢꣯नानि । नि꣣र्णि꣡जे꣢ । निः꣣ । नि꣡जे꣢꣯ । चा꣡रू꣢꣯णि । च꣣क्रे । य꣢त् । ऋ꣣तैः꣡ । अ꣡व꣢꣯र्धत ॥१४२३॥


स्वर रहित मन्त्र

त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रिरे सत्यामाशिरं परमे व्योमनि । चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ॥१४२३॥


स्वर रहित पद पाठ

त्रिः । अस्मै । सप्त । धेनवः । दुदुह्रिरे । सत्याम् । आशिरम् । आ । शिरम् । परमे । व्योमनि । वि । ओमनि । चत्वारि । अन्या । अन् । या । भुवनानि । निर्णिजे । निः । निजे । चारूणि । चक्रे । यत् । ऋतैः । अवर्धत ॥१४२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1423
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(परमे) उत्कृष्ट, (व्योमनि) विशेषरूप से रक्षक सोमयाग में (अस्मै) इस यागकर्ता के लिए (सप्त धेनवः) गायत्र्यादि सात छन्दोंवाली वेदवाणीरूप गौएँ (त्रिः) दिन में तीन बार अर्थात् प्रातः-सवन, माध्यन्दिन-सवन और सायं-सवन में (सत्याम् आशिरम्) सत्यरूप दूध (दुदुह्रिरे) दुहती हैं। वह यागकर्ता (यत्) जब (ऋतैः) सत्य के ग्रहण द्वारा (अवर्धत) वृद्धि प्राप्त करता है, तब (निर्णिजे) आत्मशोधन के लिए (चत्वारि) चार, (चारूणि) सुरम्य (अन्या भुवनानि) अन्य लोकों—ब्रह्मचर्य,गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास को (चक्रे) अपने लिए निर्धारित कर लेता है अर्थात् याग के काल में गृहस्थ होता हुआ उसके बाद वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में भी प्रविष्ट होता है ॥१॥

भावार्थ - याग आत्मशुद्धि और सत्य के अनुष्ठानार्थ होते हैं। जीवन में सत्य को अपनाकर ब्रह्मचर्य से लेकर संन्यासपर्यन्त आश्रमों का पालन करके अपने और दूसरों के दुःख दूर करने चाहिएँ ॥१॥

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