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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1433
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
5
आ꣡ न꣢स्ते गन्तु मत्स꣣रो꣢꣫ वृषा꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्यः । स꣣हा꣡वा꣢ꣳ इन्द्र सान꣣सिः꣡ पृ꣢तना꣣षा꣡डम꣢꣯र्त्यः ॥१४३३॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः꣣ । ते । गन्तु । मत्सरः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । म꣡दः꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । स꣣हा꣡वा꣢न् । इ꣣न्द्र । सानसिः꣢ । पृ꣣तनाषा꣢ट् । अ꣡र्म꣢꣯त्यः । अ । म꣣र्त्यः ॥१४३३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नस्ते गन्तु मत्सरो वृषा मदो वरेण्यः । सहावाꣳ इन्द्र सानसिः पृतनाषाडमर्त्यः ॥१४३३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । ते । गन्तु । मत्सरः । वृषा । मदः । वरेण्यः । सहावान् । इन्द्र । सानसिः । पृतनाषाट् । अर्मत्यः । अ । मर्त्यः ॥१४३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1433
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द के विषय का ही वर्णन है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर (ते) आपका (वृषा) मनोरथ पूर्ण करनेवाला, (मदः) उत्साहित करनेवाला, (वरेण्यः)वरणीय, (सहावान्) बलवान् (सानसिः) संभजनीय, (पृतनाषाट्) शत्रु-सेनाओं को पराजित करनेवाला, (अमर्त्यः) अक्षय (मत्सरः) आनन्द-रूप सोम (नः) हमें (आ गन्तु) प्राप्त होवे ॥२॥
भावार्थ - रसमय परमेश्वर से परमानन्द-रस पाकर मनुष्यों को शूरतापूर्वक आन्तरिक तथा बाह्य सब शत्रुओं का उन्मूलन करके निष्कण्टक स्वराज्य स्थापित करना चाहिए ॥२॥
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