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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1467
ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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वृ꣣ष्टि꣡द्या꣢वा री꣣꣬त्या꣢꣯पे꣣ष꣢꣫स्पती꣣ दा꣡नु꣢मत्याः । बृ꣣ह꣢न्तं꣣ ग꣡र्त꣢माशाते ॥१४६७॥

स्वर सहित पद पाठ

वृ꣣ष्टि꣡द्या꣢वा । वृ꣣ष्टि꣢ । द्या꣣वा । रीत्या꣢꣯पा । री꣣ति꣢ । आ꣣पा । इ꣢षः । प꣢꣯तीइ꣡ति꣢ । दा꣡नु꣢꣯मत्याः । बृ꣣ह꣡न्त꣢म् । ग꣡र्त꣢꣯म् । आ꣣शातेइ꣡ति꣢ ॥१४६७॥


स्वर रहित मन्त्र

वृष्टिद्यावा रीत्यापेषस्पती दानुमत्याः । बृहन्तं गर्तमाशाते ॥१४६७॥


स्वर रहित पद पाठ

वृष्टिद्यावा । वृष्टि । द्यावा । रीत्यापा । रीति । आपा । इषः । पतीइति । दानुमत्याः । बृहन्तम् । गर्तम् । आशातेइति ॥१४६७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1467
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। जो योगी विद्वान् लोग (ब्रध्नम्) महान्, (अरुषम्) तेजस्वी, अहिंसक, करुणामय, (तस्थुषः) सब स्थावर पदार्थों वा दृढ स्वभाववाले मनुष्यों में (परिचरन्तम्) व्याप्त इन्द्र परमेश्वर का (युञ्जन्ति) अपने साथ योग करते हैं, वे (रोचना) दीप्तिमान् होते हुए (दिवि) प्रकाशमय मोक्षधाम में (रोचन्ते) शोभा पाते हैं ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। जो पृथिवी, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि लोक (ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) आरोचमान, (तस्थुषः) सब स्थावर पदार्थों वा मनुष्यों को (परिचरन्तम्) अपनी किरणों से व्याप्त करते हुए इन्द्र नामक सूर्य को (युञ्जन्ति) अपने साथ जोड़ते हैं, वे (रोचना) दीप्तिमान् होते हुए (दिवि) आकाश में (रोचन्ते) चमकते हैं ॥ तृतीय—प्राण के पक्ष में। जो उपासक लोग (ब्रध्नम्) सब अङ्गों की वृद्धि करनेवाले महान् (अरुषम्) क्षति न पहुँचानेवाले, (तस्थुषः) शरीर में स्थित सब अङ्गों को (परिचरन्तम्) प्राप्त होनेवाले इन्दु नामक प्राण को (युञ्जन्ति) प्राणायाम की रीति से अपने अन्दर जोड़ते हैं, वे (रोचना) चमकनेवाले नक्षत्र जैसे (दिवि) आकाश में प्रकाशित होते हैं, वैसे ही (रोचन्ते) तेजस्वी होते हैं ॥ चतुर्थ—शिल्प के विषय में। जो शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विद्वान् लोग (ब्रध्नम्) महान्, (तस्थुषः) स्थावर वनौषधि आदि को वा मनुष्यों को (परिचरन्तम्) प्राप्त होनेवाले इन्द्र नामक पार्थिव अग्नि, विद्युत्, वायु वा सूर्य को (युञ्जन्ति) भूयान, जलयान तथा विमानों में और यन्त्र-कलाओं में जोड़ते हैं, वे (दिवि) आकाश में (रोचना) चमकनेवाले नक्षत्रों के समान (रोचन्ते) यशस्वी होते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, तृतीय, चतुर्थ व्याख्यानों में लुप्तोपमा भी है ॥१॥

भावार्थ - जैसे योगियों को अपने आत्मा में परमेश्वर के योग से परमात्मा का प्रकाश प्राप्त होता है, और शरीर के अङ्गों में प्राण के योग से प्राणसिद्धि प्राप्त होती है, वैसे ही सूर्य-किरणों के योग से हमारे सौर मण्डल के सब ग्रह-उपग्रहों को भौतिक प्रकाश प्राप्त होता है और शिल्पियों को यान आदियों में अग्नि, वायु, बिजली, सूर्य के योग से यश प्राप्त होता है ॥१॥

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