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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1507
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णः, त्रसदस्युः पौरुकुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ऊर्ध्वा बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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अ꣣꣬भ्य꣢꣯भि꣣ हि꣡ श्रव꣢꣯सा त꣣त꣢र्दि꣣थो꣢त्सं꣣ न꣡ कं चि꣢꣯ज्जन꣣पा꣢न꣣म꣡क्षि꣢तम् । श꣡र्या꣢भि꣣र्न꣡ भर꣢꣯माणो꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः ॥१५०७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भ्य꣢꣯भि । अ꣣भि꣢ । अ꣣भि । हि꣢ । श्र꣡व꣢꣯सा । त꣣त꣡र्दि꣢थ । उ꣡त्स꣢꣯म् । उत् । स꣣म् । न꣢ । कम् । चि꣣त् । जनपा꣡न꣢म् । ज꣣न । पा꣡न꣢꣯म् । अ꣡क्षि꣢꣯तम् । अ । क्षि꣣तम् । श꣡र्या꣢꣯भिः । न । भ꣡र꣢꣯माणः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥१५०७॥


स्वर रहित मन्त्र

अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम् । शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥१५०७॥


स्वर रहित पद पाठ

अभ्यभि । अभि । अभि । हि । श्रवसा । ततर्दिथ । उत्सम् । उत् । सम् । न । कम् । चित् । जनपानम् । जन । पानम् । अक्षितम् । अ । क्षितम् । शर्याभिः । न । भरमाणः । गभस्त्योः ॥१५०७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1507
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे सोम नामक जगत्पति परमात्मन् ! (श्रवसा) यश से प्रसिद्ध आप (अक्षितम् उत्सं न) अक्षय जल-स्रोत के समान(अक्षितं जनपानम्) मनुष्यों से पान करने योग्य अक्षय आनन्द-रस को (अभ्यभि हि) उपासकों के प्रति (ततर्दिथ) बहाते हो और (गभस्त्योः) बाहुओं की (शर्याभिः न) अंगुलियों से जैसे कोई मनुष्य किसी वस्तु को पकड़ता है, वैसे ही आपने (गभस्त्योः) द्यावापृथिवी की (शर्याभिः) किरणों से (भरमाणः) लोक लोकान्तरों को धारण किया हुआ है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - जैसे स्रोत से बहता हुआ जलप्रवाह भूभाग को आप्लावित कर देता है, वैसे ही परमात्मा के पास से बहता हुआ आनन्द-रस उपासकों के अन्तःकरण को आप्लावित करता है और जैसे बाहुओं की अंगुलियों से कोई किसी पदार्थ को धारण करता है, वैसे ही जगदीश्वर द्यावापृथिवी में व्याप्त सूर्य-रश्मियों से विभिन्न लोकों को धारण करता है ॥२॥

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