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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1516
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
17
य꣢स्मा꣣द्रे꣡ज꣢न्त कृ꣣ष्ट꣡य꣢श्च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि कृण्व꣣तः꣢ । स꣣हस्रसां꣢ मे꣣ध꣡सा꣢ताविव꣣ त्म꣢ना꣣ग्निं꣢ धी꣣भि꣡र्न꣢मस्यत ॥१५१६॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्मा꣢꣯त् । रे꣡ज꣢꣯न्त । कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि । कृ꣣ण्वतः꣢ । स꣣हस्रसा꣢म् । स꣣हस्र । सा꣢म् । मे꣣ध꣡सा꣢तौ । मे꣣ध꣢ । सा꣣तौ । इव । त्म꣡ना꣢꣯ । अ꣣ग्नि꣢म् । धी꣣भिः꣢ । न꣣मस्यत ॥१५१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्माद्रेजन्त कृष्टयश्चर्कृत्यानि कृण्वतः । सहस्रसां मेधसाताविव त्मनाग्निं धीभिर्नमस्यत ॥१५१६॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्मात् । रेजन्त । कृष्टयः । चर्कृत्यानि । कृण्वतः । सहस्रसाम् । सहस्र । साम् । मेधसातौ । मेध । सातौ । इव । त्मना । अग्निम् । धीभिः । नमस्यत ॥१५१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1516
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और राजा का विषय है।
पदार्थ -
(चर्कृत्यानि) अतिशय करने योग्य कर्मों को (कृण्वतः) करते हुए (यस्मात्) जिस जगदीश्वर वा राजा से (कृष्टयः) दुष्ट मनुष्य (रेजन्त) भय के मारे काँपते हैं, उस (सहस्रसाम्) सहस्र गुणों वा सहस्र पदार्थों के दाता (अग्निम्) अग्रनायक, जगदीश्वर वा राजा को, आप लोग (त्मना) स्वयं (धीभिः) बुद्धियों और कर्मों से (सपर्यत) पूजित वा सत्कृत करो, (मेधसातौ इव) जैसे यज्ञ में (अग्निम्) यज्ञाग्नि को याज्ञिक जन (धीभिः) आहुति-प्रदान आदि कर्मों से सत्कृत करते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - जैसे न्यायकारी परमेश्वर से वैसे ही न्यायकारी राजा से दण्ड के भय से पापी लोग काँपें। जैसे सज्जनों को परमेश्वर सहस्र गुण व बल प्रदान करता है, वैसे ही राजा राष्ट्रभक्तों को सहस्र लाभ प्रदान करे। प्रजाजन भी परमेश्वर के भक्त जैसे परमेश्वर की पूजा करते हैं वा याज्ञिक लोग जैसे यज्ञाग्नि का हवियों से सत्कार करते हैं, वैसे ही अपने राजा का सत्कार करें ॥२॥
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