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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1533
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ई꣡शि꣢षे꣣ वा꣡र्य꣢स्य꣣ हि꣢ दा꣣त्र꣡स्या꣢ग्ने꣣꣬ स्वः꣢꣯पतिः । स्तो꣣ता꣢ स्यां꣣ त꣢व꣣ श꣡र्म꣢णि ॥१५३३॥
स्वर सहित पद पाठई꣡शि꣢꣯षे । वा꣡र्य꣢꣯स्य । हि । दा꣣त्र꣡स्य꣢ । अ꣣ग्ने । स्वः꣢पति । स्वऽ३रि꣡ति꣢ । प꣣तिः । स्तोता꣢ । स्या꣣म् । त꣡व꣢꣯ । श꣡र्म꣢꣯णि ॥१५३३॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशिषे वार्यस्य हि दात्रस्याग्ने स्वःपतिः । स्तोता स्यां तव शर्मणि ॥१५३३॥
स्वर रहित पद पाठ
ईशिषे । वार्यस्य । हि । दात्रस्य । अग्ने । स्वःपति । स्वऽ३रिति । पतिः । स्तोता । स्याम् । तव । शर्मणि ॥१५३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1533
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्माग्नि का विषय है।
पदार्थ -
हे (अग्ने) जगन्नायक, विश्ववन्द्य, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, तेजस्वी, दयालु परमेश ! (स्वः पतिः) आनन्द और दिव्य प्रकाश के अधिपति आप (वार्यस्य) वरणीय, (दात्रस्य) दातव्य ऐश्वर्य के (ईशिषे हि) स्वामी हो। (शर्मणि) आपकी शरण पाने के हेतु, मैं (तव) आपके (स्तोता) गुण-कर्म-स्वभावों का कीर्तन करनेवाला (स्याम्) होऊँ ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभावों का चिन्तन करने से आंशिक रूप में मनुष्य भी वैसा हो सकता है ॥२॥
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