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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1562
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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स꣡ इ꣢धा꣣नो꣡ वसु꣢꣯ष्क꣣वि꣢र꣣ग्नि꣢री꣣डे꣡न्यो꣢ गि꣣रा꣢ । रे꣣व꣢द꣣स्म꣡भ्यं꣢ पुर्वणीक दीदिहि ॥१५६२॥

स्वर सहित पद पाठ

सः । इ꣣धा꣢नः । व꣡सुः꣢꣯ । क꣣विः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । ई꣣डेन्यः꣢ । गि꣣रा꣢ । रे꣣व꣢त् । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । पु꣢र्वणीक । पुरु । अनीक । दीदिहि ॥१५६२॥


स्वर रहित मन्त्र

स इधानो वसुष्कविरग्निरीडेन्यो गिरा । रेवदस्मभ्यं पुर्वणीक दीदिहि ॥१५६२॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । इधानः । वसुः । कविः । अग्निः । ईडेन्यः । गिरा । रेवत् । अस्मभ्यम् । पुर्वणीक । पुरु । अनीक । दीदिहि ॥१५६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1562
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (पुर्वणीक) बहुत-सी सेनावाले परमात्मन्, आचार्य वा राजन् ! (इधानः) प्रकाश देते हुए, (वसुः) निवास-प्रदाता, (कविः) मेधावी और क्रान्तद्रष्टा, (गिरा ईडेन्यः) वाणी से स्तुति करने योग्य (अग्निः) उन्नति करानेवाले (सः) वे आप (अस्मभ्यम्) हम उपासकों, शिष्यों वा प्रजाजनों के लिए (रेवत्) शोभा के साथ (दीदिहि) चमको ॥२॥

भावार्थ - परमात्मा और आचार्य सद्गुणों की सेना से और राजा योद्धाओं की सेना से बढ़ता है और अपने उपासकों, शिष्यों और प्रजाजनों को बढ़ाता है ॥२॥

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