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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1607
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
5
इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा पुरूवसो꣣ गि꣡रो꣢ वर्धन्तु꣣ या꣡ मम꣢꣯ । पा꣣वक꣡व꣢र्णाः꣣ शु꣡च꣢यो विप꣣श्चि꣢तो꣣ऽभि꣡ स्तोमै꣢꣯रनूषत ॥१६०७॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । गि꣡रः꣢꣯ । व꣣र्धन्तु । याः꣢ । म꣡म꣢꣯ । पा꣣वक꣡व꣢र्णाः । पा꣣व꣢क । व꣣र्णाः । शु꣡च꣢꣯यः । वि꣣पश्चि꣡तः꣢ । वि꣣पः । चि꣡तः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । अ꣣नूषत ॥१६०७॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ त्वा पुरूवसो गिरो वर्धन्तु या मम । पावकवर्णाः शुचयो विपश्चितोऽभि स्तोमैरनूषत ॥१६०७॥
स्वर रहित पद पाठ
इमाः । उ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । गिरः । वर्धन्तु । याः । मम । पावकवर्णाः । पावक । वर्णाः । शुचयः । विपश्चितः । विपः । चितः । अभि । स्तोमैः । अनूषत ॥१६०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1607
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २५० क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ एक साथ परमात्मा और आचार्य दोनों को कहते हैं।
पदार्थ -
हे (पुरूवसो) बहुत ऐश्वर्य से युक्त परमात्मन् वा बहुत विद्याधन से सम्पन्न आचार्य ! (इमाः उ) ये (याः मम गिरः) जो मेरी वाणियाँ हैं, वे (त्वा) आपको (वर्धन्तु) बढ़ायें अर्थात् आपकी महिमा को प्रकाशित करें। (पावकवर्णाः) अग्नि के समान उज्ज्वल वर्णवाले, तेजस्वी, (शुचयः) पवित्र (विपश्चितः) विद्वान् लोग (स्तोमैः) स्तोत्रों से, आपकी (अभ्यनूषत) स्तुति कर रहे हैं ॥१॥ यहाँ ‘पावकवर्णाः’ में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - जैसे जगदीश्वर वेदज्ञान के प्रदान द्वारा वैसे ही आचार्य वेदादि शास्त्रों के शिक्षण द्वारा सबका उपकार करता है ॥१॥
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