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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 161
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥१६१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡द꣢꣯म् ॥१६१॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥१६१॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥१६१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 161
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
प्रथमः—परमात्मा के पक्ष में। हे (वृषभ) सुखशान्ति की वर्षा करनेवाले परमात्मन् ! (सुते) इस उपासना-यज्ञ में (पीतये) आपके पीने अर्थात् स्वीकार करने के लिए (सुतम्) निष्पादित भक्तिरस को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) समर्पित करता हूँ, आप इससे (तृम्प) तृप्त हों। अपने भक्त को अपने प्रेम में डूबे हुए हृदयवाला देखकर (मदम्) आनन्द को (वि अश्नुहि) प्राप्त करें, जैसे पिता पुत्र को अपने प्रति श्रद्धालु देखकर प्रमुदित होता है ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। गुरुकुल में अपने बालक को आचार्य के हाथों में सौंपते हुए पिता कह रहा है—हे (वृषभ) ज्ञान-वर्षक आचार्यप्रवर ! (सुते) इस अध्ययन-अध्यापन रूप सत्र के प्रवृत्त होने पर (पीतये) विद्यारस के पान के लिए (सुतम्) अपने पुत्र को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) छोड़ता हूँ अर्थात् आपके अधीन करता हूँ। आगे पुत्र को कहता है—हे पुत्र ! तू आचार्य के अधीन रहकर (तृम्प) ज्ञानरस से तृप्तिलाभ कर, (मदम्) आनन्दप्रद सदाचार को भी (वि अश्नुहि) प्राप्त कर, इस प्रकार आचार्य से विद्या की शिक्षा और व्रतपालन की शिक्षा ग्रहण करके विद्यास्नातक और व्रतस्नातक बन ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष और ‘सुते-सुतं’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थ - जैसे परमेश्वर भूमि पर मेघ-जल और उपासकों के हृदय में सुख-शान्ति की वर्षा करता है, वैसे ही आचार्य शिष्य के हृदय में विद्या और सदाचार को बरसाता है। अतः सबको परमेश्वर की उपासना और आचार्य की सेवा करनी चाहिए ॥७॥

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