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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1612
ऋषिः - पर्वतनारदौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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स꣡ नो꣢ हरीणां पत꣣ इ꣡न्दो꣢ दे꣣व꣡प्स꣢रस्तमः । स꣡खे꣢व꣣ स꣢ख्ये꣣ न꣡र्यो꣢ रु꣣चे꣡ भ꣢व ॥१६१२॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । हरीणाम् । पते । इ꣡न्दो꣢꣯ । दे꣣व꣡प्स꣢रस्तमः । दे꣣व꣢ । प्स꣣रस्तमः । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । इव । स꣡ख्ये꣢꣯ । स । ख्ये꣣ । न꣡र्यः꣢꣯ । रु꣣चे꣢ । भ꣣व ॥१६१२॥


स्वर रहित मन्त्र

स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः । सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥१६१२॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । नः । हरीणाम् । पते । इन्दो । देवप्सरस्तमः । देव । प्सरस्तमः । सखा । स । खा । इव । सख्ये । स । ख्ये । नर्यः । रुचे । भव ॥१६१२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1612
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (हरीणां पते) इन्द्रियों के अथवा आकर्षणगुणयुक्त सूर्य, चन्द्र, भूममण्डल आदियों के स्वामिन्, (इन्दो) तेजस्वी जीवात्मन् वा परमात्मन् ! (देवप्सरस्तमः) देहस्थ, मन, बुद्धि आदि देवों को वा ब्रह्माण्डस्थ सूर्य, चन्द्र आदि देवों को अतिशय रूप देनेवाला, (नर्यः) मनुष्यों का हितकर्ता (सः) वह तू (नः) हमें (रुचे) तेज देने के लिए (भव) हो, (सख्ये) मित्र को (सखा इव) मित्र जैसे तेज देता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - जीवात्मा जैसे शरीर में स्थित सब मन, बुद्धि, प्राण आदियों को अपने-अपने कर्म में सञ्चालित करता हुआ और उन्हें शक्ति देता हुआ शरीर का सम्राट् होता है, वैसे ही परमेश्वर ब्रह्माण्ड में स्थित सूर्य, चाँद, नक्षत्र आदियों को सञ्चालित करता हुआ और उन्हें शक्ति देता हुआ ब्रह्माण्ड का सम्राट् होता है ॥२॥

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