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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1614
ऋषिः - अत्रिर्भौमः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
3
अ꣣ञ्ज꣢ते꣣꣬ व्य꣢꣯ञ्जते꣣ स꣡म꣢ञ्जते꣣ क्र꣡तु꣢ꣳ रिहन्ति꣣ म꣢ध्वा꣣꣬भ्य꣢꣯ञ्जते । सि꣡न्धो꣢रुऽच्छ्वा꣣से꣢ प꣣त꣡य꣢न्तमु꣣क्ष꣡ण꣢ꣳ हिरण्यपा꣣वाः꣢ प꣣शु꣢म꣣प्सु꣡ गृ꣢भ्णते ॥१६१४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ञ्ज꣡ते꣢ । वि । अ꣣ञ्जते । स꣢म् । अ꣣ञ्जते । क्र꣡तु꣢꣯म् । रि꣣हन्ति । म꣡ध्वा꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣ञ्जते । सि꣡न्धोः꣢꣯ । उ꣣च्छ्वासे꣢ । उ꣣त् । श्वासे꣢ । प꣣त꣡य꣢न्तम् । उ꣣क्ष꣡ण꣢म् । हि꣣रण्यपावाः꣢ । हि꣣रण्य । पावाः꣢ । प꣣शु꣢म् । अ꣣प्सु꣢ । गृ꣣भ्णते ॥१६१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुꣳ रिहन्ति मध्वाभ्यञ्जते । सिन्धोरुऽच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणꣳ हिरण्यपावाः पशुमप्सु गृभ्णते ॥१६१४॥
स्वर रहित पद पाठ
अञ्जते । वि । अञ्जते । सम् । अञ्जते । क्रतुम् । रिहन्ति । मध्वा । अभि । अञ्जते । सिन्धोः । उच्छ्वासे । उत् । श्वासे । पतयन्तम् । उक्षणम् । हिरण्यपावाः । हिरण्य । पावाः । पशुम् । अप्सु । गृभ्णते ॥१६१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1614
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५६४ क्रमाङ्क पर की जा चुकी है। यहाँ भिन्न प्रकार से व्याख्या करते हैं।
पदार्थ -
परमेश्वर के उपासक विद्वान् लोग (अञ्जते) स्वयं का मार्जन करते हैं, (व्यञ्जते) स्तुति-वाणियों को व्यक्त करते हैं, (समञ्जते) परमात्मा के साथ सङ्गम करते हैं, (क्रतुम्) श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ कर्म का (रिहन्ति) आस्वादन करते हैं, (मध्वा) मधुर ब्रह्मानन्द से (अभ्यञ्जते) अपने आत्मा में सद्गुणों का उबटन लगाते हैं, अर्थात् अपने आत्मा को संस्कृत करते हैं (सिन्धोः) रक्त के सिन्धु हृदय के (उच्छ्वासे) स्पन्दन में (पतयन्तम्) गति देते हुए, (उक्षणम्) बल को सींचनेवाले, (पशुम्) द्रष्टा जीवात्मा को (हिरण्यपावाः) ज्योति के रक्षक उपासक लोग (अप्सु) अपने कर्मों में (गृभ्णते) ग्रहण कर लेते हैं अर्थात् उसकी प्रेरणा के अनुसार कर्म करते हैं ॥१॥ यहाँ एक कर्ता कारक के अनेक क्रियाओं से सम्बन्ध होने के कारण दीपक अलङ्कार है, जैसा कि साहित्यदर्पण में इसका लक्षण किया गया है— ‘अनेक क्रियाओं में एक कारक हो तो दीपक होता है। (सा० द० १०।४९)’ ‘ञ्जते’ के चार बाद पठित होने से वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥
भावार्थ - शरीर में हृदय का स्पन्दन, धमनियों और शिराओं में रक्त का सञ्चार, फेफड़ों में रक्त का शोधन इत्यादि जो कुछ भी कार्य है, वह सब जीवात्मा के अधीन है और जीवात्मा भी परमात्मा के अधीन है ॥१॥
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