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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1628
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - वायुः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
6
वा꣡यो꣢ शु꣣क्रो꣡ अ꣢यामि ते꣣ म꣢ध्वो꣣ अ꣢ग्रं꣣ दि꣡वि꣢ष्टिषु । आ꣡ या꣢हि꣣ सो꣡म꣢पीतये स्पा꣣र्हो꣡ दे꣢व नि꣣यु꣡त्व꣢ता ॥१६२८॥
स्वर सहित पद पाठवा꣡यो꣢꣯ । शु꣣क्रः꣢ । अ꣣यामि । ते । म꣡ध्वः꣢꣯ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । दि꣡वि꣢꣯ष्टिषु । आ । या꣣हि । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । स्पार्हः꣢ । दे꣣व । नियु꣡त्व꣢ता । नि꣣ । यु꣡त्व꣢꣯ता ॥१६२८॥
स्वर रहित मन्त्र
वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु । आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता ॥१६२८॥
स्वर रहित पद पाठ
वायो । शुक्रः । अयामि । ते । मध्वः । अग्रम् । दिविष्टिषु । आ । याहि । सोमपीतये । सोम । पीतये । स्पार्हः । देव । नियुत्वता । नि । युत्वता ॥१६२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1628
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम मन्त्र में उपास्य-उपासक का आपस का सम्बन्ध वर्णित है।
पदार्थ -
हे (वायो) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (दिविष्टिषु) विवेक-प्रकाश की प्राप्तियों के हो जाने पर (शुक्रः) पवित्र मैं (ते) आपके (मध्वः) आनन्द-रस के (अग्रम्) श्रेष्ठ भाग को (अयामि) पा रहा हूँ। हे (देवः) मोदमय ! (स्पार्हः) स्पृहणीय आप (सोमपीतये) मेरे श्रद्धा-रस के पानार्थ (नियुत्वता) नियुक्त रथ से जैसे कोई आता है, वैसे (आयाहि) आओ ॥१॥ यहाँ ‘नियुत्वता’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - जैसे उपासक परमेश्वर के आनन्द-रसों का प्यासा होता है, वैसे ही परमेश्वर भी उपासक के भक्ति-रसों का प्यासा होता है ॥१॥
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